कविता

बिछड़ने का दर्द

देश शहर है प्यारा अपने ही समाज से है प्यार ।
चारों धाम से सुखमय मुझको मेरा घर परिवार ।।
घर परिवार का दर्द महसूस किया है ।
अपनों से बिछड़ने का दर्द महसूस किया है ।।
मां ने गोद में बिठाकर बाल
सहलाया भी नहीं सोलह सावन ।
पिता का उंगली पकड़कर
चला भी नहीं सोलह सावन ।।
घर छूटा समाज छूटा छूट गया सारे रिश्तेदार ।
चारों धाम से सुखमय मुझको मेरा घर परिवार ।।
गिरा हुआ इंसान को उठाने की ,
हर मोहल्ले चौराहे पर देता रहा ।
देकर दलील खुद को भी …..,
संभाल न पाया बचा न पाया घर आंगन ।।
न जाने कौन सा रोग लगा ,
लोग कहते हैं प्रेम रोग लगा ।
आकुल हुआ व्याकुल हुआ बिखर गया संसार ।
चारों धाम से सुखमय मुझको मेरा घर परिवार ।।
जात क्या है…, धर्म क्या है….,
सबका मालिक एक इंसान तो इंसान है ।
बचपन से किशोरावस्था की दहलीज ,
पर भी न कर पाया साजन ।।
काम चाहिए कविता चाहिए ,
कमल भी चाहिए यही था पुकार ।
चारों धाम से सुखमय मुझको मेरा घर परिवार ।।
नादान भी था अनजान भी था ,
इस कदर सोचा भी नहीं समझा भी नहीं ।
किसी से सुना भी नहीं पाया ,
किसी से कुछ कह भी न पाया अनबन ।।
बिछड़ गए सारे जिंदगी हमारे हो गए हम तड़ीपार ।
चारों धाम से सुखमय मुझको मेरा घर परिवार ।।
देश है प्यारा शहर है प्यारा अपने ही समाज से है प्यार ।।

मनोज शाह 'मानस'

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