कविता

सनातन संस्कृति

समय के साथ हम भी
कितने सयाने हो गए हैं,
वेद पुराण गीता उपनिषद
घोलकर हम पी गए हैं।
भूल गए संस्कृति सभ्यता
भूल गए सब लोकाचार
भूल पुरातनपंथी धारा
भूल गए सब शिष्टाचार।
भूल गए सभ्यता संस्कृति
भूल गए करना सम्मान,
भूल रहे माँ बाप को हम
तनिक नहीं हो रहा भान।
छोटे बड़े की मर्यादा का
रखते कहाँ आज हम ध्यान,
चाचा, चाची, मौसी मौसा
बुआ फूफा या दीदी जीजा
नाना, नानी, मामा, मामी
बचा कहाँ इनका सम्मान।
भाई भाई में द्वंद्व मचा है
भाई बहन में रंज बसा है,
नन्द भौजाई में मेल न कोई
सनातन संस्कृति कहाँ बचा है।
रिश्तों की मर्यादा मर रही
आँखों का पानी सूख रहा है,
चरण स्पर्श अपवाद बन रहा
दादा पोती पोता से दूर हुआ है।
दादा दादी, नाना ,नानी अब
तिरछी नजर से देखें जाते,
नाती पोतों में अब उनको
बचपन के दिन दिख न पाते।
वैवाहिक बंधन भी अब
औपचारिक होते जा रहे,
रीति परंपराएँ आधुनिकता की भेंट चढ़ रहे।
कितने खुश हैं हम सब यारों
दकियानूसी विचारों से दूर हो रहे,
जिन पर चलकर पुरखे हमारे
मरकर भी आज जिंदा लग रहे।
हम खुश हैं आधुनिक बनकर
जिंदा मुर्दा सब हो रहे बराबर
सनातन संस्कृति से दूर होकर
लगते हैं हम जैसे मुर्दा घर।
आज तो लाशों पर भी
हम बेशर्मी से तांडव करते हैं,
सनातन संस्कृति से दूर जा रहे
फिर भी कितना गर्व हम करते हैं।
सनातन संस्कृतियों की दुहाई
बेकार में देना अब बंद कीजिए,
ज्यादा चिंता हो रही हो तो
अब अपने प्राण छोड़ दीजिए।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921