संस्मरण

मेरे सिर पर उसका हाथ

२९ मई २०२२ की रात लगभग १.३० बजे तक कुछ उलझनों के चक्रव्यूह में उलझा जागता रहा। निद्रा देवी थीं, कि वो भी मेरी उलझनों से दोस्ती गाँठकर जैसे मुझे मुँह चिढ़ा रही थीं। मोबाइल में कब तक उलझा रहता। उलझनों के मकड़जाल में फँसे होने के कारण कुछ लेखन, पाठन भी संभव नहीं हो पा रहा था।
अंततः बिस्तर की शरण में जबरन जा पहुंचा। पर  निद्रा तो जैसे किसी मेले में गुम सी हो चुकी थी। वो कहते हैं न कि जब समय साथ न हो तो साया भी साथ छोड़ देता है। फिलहाल साया तो रात के अंधेरे में गुम था। पर नींद को जैसे मेले से लौटने की सुध ही न हो।
करवटें बदलते, उलझनों से जूझते हुए ४०-४५ मिनट बाद बिस्तर से बाहर आया और बरामदे में ५-७ मिनट टहलता रहा , फिर बिस्तर में आकर सोने का असफल प्रयास करता रहा। पर निद्रा देवी तो जैसे न आने का प्रण कर बैठी थीं। लगभग आधे घंटे बाद फिर वही उपक्रम इस उम्मीद में करता रहा, पर असफल ही रहा।
एक कहावत आपने भी सुनी होेगी ,जब सारे रास्ते बंद हों तो ईश्वर याद आते हैं। मैं पुनः बिस्तर में जाने के साथ ईश्वर से भावनाओं के तार जोड़ने में लगा रहा, लिहाजा तार जुड़ गया। जैसे ईश्वर भी रात्रि ड्यूटी पर मुस्तैद थे।  कुछ समय बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे सिर पर किसी ने बड़े प्यार से हाथ फेरा और कहा सब ठीक हो जाएगा। एक पल को उसका चेहरा दिखा भी और अगले पर ही लगा कि ये तो वही है, जो मेरे लिए पूज्य है। जिसका आशीर्वाद मेरी पूंजी है। शायद माँ ही बहन या बेटी बन मेरी उलझन से परेशान होकर उतनी रात मुझे ढांढस बँधा सुलाने आई हो अथवा किसी को सिफारिश कर भेजा हो। थोड़ा ताज्जुब भी हुआ, ऐसा कैसे हो सकता है? परंतु ऐसा ही हुआ और फिर कुछ पलों में ही मुझे ऐसा लगा कि मेरे सिर से कोई बोझ उतर गया। शरीर हल्का हो गया। बमुश्किल २-३ मिनट में मैं निद्रा देवी की गोद में जा पहुंचा। शायद इसीलिए ईश्वरीय लीलाओं पर भरोसा करना पड़ता है।
इतना तक तो ठीक है, किंतु मेरे लिए एकदम नया अनुभव है। परंतु एक पुनरावृत्ति इस बार थोड़ा अंतराल के बाद हुई। प्रातः लगभग ८.१५ बजे मुझे लगा कि जैसे मेरी स्व. माँ मुझे हिलाकर जगा रही हों, कि अब उठो, कब तक सोओगे और मैं उठकर बैठ गया।
आप सभी की जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैं आपको बताता चलूं कि मेरी माँ जब तक जीवित रहीं, तब तक सुबह जल्दी ही उठ जाती थीं और यही मेरी भी आदत थी। मगर यदि किसी दिन थोड़ा देर तक सोता रहता तो वे मेरे सिरहाने आकर मुझे हिलाकर जगाती और यही कहती , उठना नहीं है। उन्हें इस बात से मतलब नहीं था कि मैं सोया कब था।
२०१९ में देहावसान के बाद भी  वो जब तब अपने इस उपक्रम को दोहराती रहती हैं, जब मैं उनके हिसाब से देर तक सोता रहता हूं।
ताज्जुब तो इस बात का भी है कि जब मुझे सुबह सुबह कहीं बाहर जाना होता है, तो पहले की तरह वो आज भी अक्सर अपनी जिम्मेदारियों को निभाने आ ही जाती हैं ,जिसका असर ही है कि मैं कभी घर से विलंब से नहीं निकला होऊँगा और न ही आज तक मेरी ट्रेन या बस छूटी है, यदि मैंनें खुद से लापरवाही न की हो अथवा कोई तात्कालिक परिस्थित न आई हो।
अब इस घटनाक्रम को आप किस रुप में लेते हैं ये आप पर निर्भर है। मगर मुझे खुशी है कि मेरी माँ आज भी मेरे आसपास है। यह ईश्वर की बड़ी कृपा ही है।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

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