पुस्तक समीक्षा

काव्य संग्रह-जिंदगी के साज पर

युवा कवि/साहित्यकार अनुरोध कुमार श्रीवास्तव जी के साहित्य के असीम आकाश में मेरी छोटी सी कोशिश-शायद पसंद आये के भाव उनकी सहजता को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है।

विभिन्न विषयों पर गहन चिंतन और परिवार, समाज, राष्ट्र के साथ संबंधों, परिस्थिति और घटनाओं पर पैनी नजर रखने और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति समर्पित रहकर अनुरोध जी ने अपनी धारदार लेखनी से चेतना जगाने, संदेश देने के साथ हर किसी को कुछ न कुछ देने का जैसे वीणा अपने कंधों पर लिया है।  संग्रह की रचनाएं सोद्देश्य की दिशा तय करते प्रतीत होते हैं, जो पाठकों को बांधे रखने में समर्थता का द्योतक है।
शासकीय सेवा में अनेकानेक व्यस्तताओं के बीच साहित्य और समाज के सजग प्रहरी की उनकी भूमिका उनके समर्पण को दर्शाती है।
संग्रह के नामकरण “जिंदगी के साथ पर” ग़ज़ल में उनकी पंक्तियां “ग़ज़ल जो छेड़ी है मैंने जिंदगी के साथ पर, कोई क्यूं रुसवा हुआ मेरी इक आवाज़ पर।” उनकी चिंतन शीलता काफी कुछ कह रही है।
पुस्तक के नाम वाले अपने पहले ग़ज़ल में उन्होंने संग्रह के नाम की सार्थकता को उजागर कर दिया।
प्रारंभिक चरण में ग़ज़लों के माध्यम से विभिन्न पहलुओं को छूते हुए अपनी लेखनी का जादू बिखरने के बाद कविताओं के माध्यम से सर्वोन्मुखी फलक से कवि ने अपने शब्दाधार प्रवाह को गतिशील बनाए रखकर अपने साहित्यिक जूनून को उजागर किया है। मां सरस्वती की वंदना के साथ कंक्रीट के जंगल से होते हुए सांसों की कविता के साथ सड़क कहां जाती है, से स्वच्छ भारत के नववर्ष में गंगा की आत्मकथा का शब्द चित्र मनमोहक सूकून का बोध कराता है। नवगीत में कवि ने प्रकृति से खुद को जोड़ते हुए बचपन को भी याद किया है, फिर भी आदमी हूं का आत्मबोध करते कराते तिरंगा को जीवन से भी प्यारा बताने का सुंदर, सार्थक प्रयास किया है। राम बुद्ध कबीर की धरती बस्ती को अपनी लेखनी के माध्यम से जनपद की महत्ता को बखूबी रेखांकित कर अपनी मिट्टी से जुड़ने का सुंदर संदेश जैसा है।
अन्यान्य रचनाओं के माध्यम से जीवन, राष्ट्र, समाज पर पैनी नजर बनाए हुए कवि ने अपने बहुआयामी सोच को फैलाए ही रखा है।
पूर्वांचल की सोंधी खुशबू उनकी अवधी रचनाओं में महसूस की जा सकती है। हास्य व्यंग्य की रचनाओं का संग्रह में समावेश उनके सुखद बहुआयामी साहित्यिक भविष्य का संकेत कहना ग़लत नहीं होगा।
संग्रह की रचनाएं पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि एक व्यक्ति ने कई आवरण ओढ़ रखें हैं और हर आवरण एक दूसरे से अलग नजर आता है। कुछ ऐसा ही कवि की रचनाओं में मिलता है। गाँव गिरांव, घर आंगन, खेत, खलिहान, बचपन, जीवन, समाज, समाज की दुश्वारियां, संस्कृति, पुरानी जीवन शैली, रीतियां, परंपराओं के साथ राष्ट्र, हर ओर अपनी सजगता से सहेजने और यथार्थ बोध कराने की कोशिश करते हुए अपनी सहज और सरल कथ्य में शब्दों का चित्र खींचने का सफल प्रयास किया है।
रचनाएं पढ़ते हुए महसूस होता है कि सब कुछ हमारे साथ, आसपास और हमारे लिए ही सोच कर लिखा गया हो। अर्थात हर रचना हमें केंद्रित महसूस होती है। जिसका किसी न किसी स्तर पर हमसे सरोकार है।
संग्रह में अनुक्रमणिका का न होना तो कचोटता ही है, साथ ही संपादन भी नंवांकुरों जैसा प्रतीत होता है। थोड़ी सी गंभीरता से संपादन और रचनाओं का सुव्यवस्थित समायोजन संग्रह की महत्ता को बढ़ा सकता था।
संक्षेप में रचनाओं की ग्राहयता संग्रह की सफलता की ओर स्पष्ट इशारा करता है। क्योंकि शासकीय सेवा में रहते हुए समय से दो दो हाथ कर साहित्य कर्म करते हुए पुस्तक के प्रकाशन तक पहुंच जाना किसी युद्ध क्षेत्र में किला जीतने जैसा है। जिसके लिए जीवटता के साथ साहित्यिक अनुराग, समर्पण युवा अनुरोध श्रीवास्तव को देख कर आत्मसात किया जा सकता है।
संग्रह के आखिरी कवर पेज पर उनका संपूर्ण परिचय न होना अखरता है । संभव है ये प्रकाशक की उदासीनता से हुआ हो।

प्रस्तुत संग्रह की सफलता के विश्वास के साथ अनुरोध श्रीवास्तव जी को सतत दायित्व बोध के साथ रचना कर्म जारी रखते हुए आने वाले अगले संग्रहों हेतु अग्रिम शुभकामनाएं।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

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