बोधकथा

गुरुर का नशा

इंसान खाली हाथ आया था,और खाली चला जायेगा।यह अकाट्य सत्य है। इसे कोई झुठला नही सकता।और यह भी परम सत्य है कि इस धरती पर जो जन्म लेता है, उसकी मौत भी निश्चित है।अर्थात जो आएगा उसे जाना भी पड़ेगा। लेकिन इंसान का गुरुर इतना सर चढ़ कर बोलता है कि उससे आगे सारी दुनिया तुच्छ है।उससे बड़ा और कोई नही है।और उसकी महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ जाती है कि वह अपनी क्षण भंगुरता की जिंदगी को भूल जाता है।
यह बात महान सम्राट सिकन्दर के सम्बंध में लागु होता है। जिसने अपने आप को विश्व विजेता घोषित कर दिया था।उसको गुरुर का नशा हो गया था। उसने अपने आप को इस दुनिया का महान बेताज बादशाह बना लिया था।इस पदवी को कायम रखने के लिए पूरी दुनिया को जीतने के लिए अपने दल बल के साथ निकल पड़ा।उसने एक तिहाई दुनिया को जीत लिया था।फिर भी उसे सन्तोष नही हुआ पूरी दुनिया को जीतने, वि”श्व विजेता बनने की गुरुर ने उसे अँधा नासमझ बना दिया।ऐसे ही वक्त जब वह अपने दल बल सैनिकों के साथ एक छोटे से कस्बे की गलियों से  गुजर रहा था तो किसी एक बुजुर्ग महिला ने उसका रास्ता रोक दिया।तब सिकन्दर ने कहा-
“अरी बुजुर्ग महिला तेरी ये दुःसाहस !!की तू मेरी रास्ता रोके।”तू नही जानती मैं कौन हूँ? तब उस बुजुर्ग महिला ने कहा- “अच्छी तरह जानती हूँ। तुझे भला कौन नही जानेगा? तू सिकन्दर है न सिकन्दर!! जो विश्व विजेता बनने की मंसूबा लेकर विश्व को जीतने के लिए निकल पड़ा है। और न जाने कितने राजा-महाराजा को बेबस लाचार,लोगों को बेवजह मौत के घाट उतार कर अपनी महत्वाकांक्षा की लालसा को पूरा कर रहा है।तुझे यह भी पता है?तेरी भी मौत एक दिन निश्चित है।
क्या विश्व को जीतकर तू अमर हो जाएगा? क्या तू नही मरेगा?विश्व को जीतकर तू मरने के बाद क्या ले जाएगा? अरे! नादान सिकंदर”खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला जायेगा।सारी जीती हुई धन संपदा धरी की धरी रह जायेगी।जीता हुआ राज्य भी यहीं धरा का धरा रह जायेगा।कोई भी चीज तुम्हारे साथ नही जाएगा।जब तुम्हारे साथ कोई चीज ही नही जाएगा तो आखिर यह सब किसके लिए कर रहा है?और यह  गुरूर, घमंड ,अहंकार किसके लिए?
सिंकदर को बुढ़िया की बात समझने में देर नही लगती।तुरन्त समझ आ जाता है। उसके मस्तिष्क में गुरुर का जो पर्दा पड़ा था,तुरन्त हट जाता है।और उसके जीवन के अंतिम समय के मौत का मंजर चित्र की भांति झलकने लगता है।और वह दहल जाता है।और फिर वह उस बुढ़िया के चरणो मे गिरकर अपना हथियार डाल देता है।और वहीं से उल्टी पाँव करके वापस अपना देश आकर शांति पूरक जीवन व्यतीत करता है।और उसका जब अंत समय आता है तो वह अपने शागिर्द नौकर-चाकर से कहता है-
” मेरी मौत के बाद, जब मुझे श्मशान घाट ले जाया जाए तब मेरे दोनों हाथों को बाहर निकाल दिए जाएँ।साथ ही साथ मेरे दोनों हाथों की मुट्ठी भी खुली रखे जाएँ।”
नौकर चाकर ने कहा- ” ऐसा क्यूँ महराज?”
तब राजा ने जो बात कही वह पूरी दुनिया के लिए सबक बन गई। और फिर उन्होंने कहना शुरू किया- “पूरी दुनिया के लोगों को इस बात की जानकारी हो कि देखो विश्व विजेता सिंकदर भी खाली हाथ आया था, और खाली हाथ ही जा रहा है।” अर्थात गुरुर घमंड अहंकार हम किसके लिए करें?हमारा जीवन क्षणभंगुर है।हम अपनी उड़ती हुई ऊंची महत्वकांक्षा को लगाम दें।बेवजह हाय तौबा न करें।गुरुर न करें। ईश्वर को याद करें ।बस इतना कहें-  जिसको कबीर दास जी ने कितनी सुंदरता से कही-
“सांई इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाए।।

— अशोक  पटेल “आशु”

*अशोक पटेल 'आशु'

व्याख्याता-हिंदी मेघा धमतरी (छ ग) M-9827874578

2 thoughts on “गुरुर का नशा

  • अशोक पटेल "आशु"

    सम्मानीय सिंघल साहब कमेंट्स के लिए धन्यवाद आभार।आपकी पैनी नजर और ज्ञान के सामने हम कुछ भी नही हैं।बस आपका मार्गदर्शन मिल रहा है।यही बहुत बड़ी बात है।आपसे उँगली पकड़ के चलना सीख रहे हैं।

  • डॉ. विजय कुमार सिंघल

    बोधकथा अच्छी है। लेकिन किसी महिला द्वारा हड़काने की बात काल्पनिक है। इसी तरह यह भी सत्य नहीं है कि उसने अन्तिम समय में युद्ध करना बन्द कर दिया था। ऐतिहासिक सत्य यह है कि पूरे यूरोप को जीतने के बाद वह एशिया को जीतने के क्रम में भारत आया था और यहाँ के राजा पुरु या पोरस से बुरी तरह हारकर लौटा था। रास्ते में उसे जहरीला तीर लग गया था, जिससे बहुत पीड़ादायक घातक घाव हो गया था। उसी से वह मरा था। हाँ, हाथ खुले रखने वाली बात सत्य है।

Comments are closed.