गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

चलना तो था मीलों तक,
पर पहुंचे हैं, टीलों तक।

गोल ज़मीं को ले आए,
कोनों और नुकीलों तक।

चकाचौंध चुभती है आओ,
लौट चलें कंदीलों तक।

खुश्बू वाले फूल बचे,
रंग गुलाबी, पीलों तक।

मिलना उनसे शायद हो,
जीवन की तकमीलों तक।

कहना था बस सार हमें,
आप अड़े तफ़सीलों तक।

छोड़ बिछोने मखमल के,
ख़ुद आए हैं कीलों तक।

अपनों ने ही पहुंचाया,
ज़िंदा हमको चीलों तक।

इश्क़ हमारा सिमटा ‘जय’,
बाग, समंदर, झीलों तक।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से