लघुकथा

चाहतें

हवा का मस्त झोंका सिहरन पैदा कर रही थी । सूरज अपनी तरुणाई को खोकर विश्राम करने जा रहा था । वह एक खजूर के पेड़ से सिर टिकाये बैठी थी । क्यों ???
और क्या सोच रही थी , शायद स्वयं अपने आप में उलझ गई थी । कैसी ये उलझन है !! यथार्थ और परछाई में ढलती शाम के वक्त कितना अंतर है ! कितनी लंबी परछाई बनी है , ठीक उसके दर्द की तरह । हाँ; दर्द ही तो पी रही हूँ ,वर्षों से ।
कहने को तो पति हैं,बच्चे हैं भरापूरा परिवार है । काश उसके शौक उसकी इच्छाओं का मान हमसफर रखे होते । बेमेल विवाह ! कैसे कह दूँ ? सुदर्शन युवक उच्च शिक्षित धनाढ्य परिवार ऊँचा घराना , हर दृष्टि कोण से सर्वश्रेष्ठ । काश मेरी ही सोच थोड़ी निचले स्तर की होती । खुद पर हँसी आ गई ।
शादी के दस सालों बाद भी याद नहीं कभी प्रकृति के गोद में बैठकर एक दूसरे का हाथ थामकर कभी दिल की बात दिल तक बिना बोले पहुंच जाता ।
हनीमून वाला सप्ताह समर्पण के सिवा कोई चाहत नहीं । फिल्में देखने अगर साथ गये तो स्क्रीन से नजरें हटती नहीं , माहौल का कोई असर नहीं । क्या यही प्यार है ?
उसे शाम की सुनहरी किरणों से प्यार होता है , शर्ट का बटन अकेले में भी टाँकते समय प्यार महसूस होता है । खाना खाने के बाद थाली में अँगुलियों से स्माइली बनाने में आनंद आता है । किससे कहूँ ; एक नदी के दो किनारे की तरह साथ चलती जा रही हूँ , पर मिलन का आनंद आज तक महसूस नहीं की ।
ओहह, बारिश शुरु हो गई अब घर जाना होगा’ काश वो साथ में दो कदम चलते हुए थोड़ा रूमानी हो जाते ।
घर पहुँचते हुए पूरी तरह भींग गई थी , फिर भी दग्ध ज्वाला सी अंदर ही अंदर महसूस कर रही थी ।
कौन समझेगा , जिससे चर्चा करूँगी मजाक बन कर रह जाऊँगी ।
सब यही कहेंगे तुझे जलने और कुढ़ने की बीमारी है।
अच्छे परिवार की बहू हो , पति अच्छा कमाता है बच्चे संस्कारी हैं सुख सुविधाओं की कमी नहीं है फिर भी उदास रहना तेरा स्वभाव बन गया है ।
कमरे में घुसते ही दिल ने कहा, भींगे बालों को जोर से झटक कर बेड पर लेटे पति को भींगा दूं ।
वह पास में गई , उफ्फ ये क्या !! किताबों के बीच कितने पन्ने छूपे थे जो अचानक पूरे कमरे में बिखर गये ।
हवा के झोंके सी वह अश्रुपूरित नेत्रों से अपनी पीड़ा अब उन पन्नों में महसूस कर रही थी,वो पराई थी पराई ही रहेगी ।
आज तक जिसे मशीनी मानव समझ रही थी उसका दिल कहीं और गिरवी पड़ा था ।
अच्छा होता यह राज ही बना रहता ।
कमरे में सुगंधा की आहट पाकर मानव घबराहट में पूछ बैठे-
“कहाँ से भींग कर आ रही हो ? एक कप चाय भी मिलेगी या नहीं इस घर में ?”
“मानव; चाहतें क्या सिर्फ पति के दिल में उफनती हैं ? पत्नियों की कोई चाहत नहीं होती ? मैं बाहर से चाय पीकर आई हूँ, आप अब खुद बनाना सीख लें तो बेहतर होगा ।”

— आरती रॉय

*आरती राय

शैक्षणिक योग्यता--गृहणी जन्मतिथि - 11दिसंबर लेखन की विधाएँ - लघुकथा, कहानियाँ ,कवितायें प्रकाशित पुस्तकें - लघुत्तम महत्तम...लघुकथा संकलन . प्रकाशित दर्पण कथा संग्रह पुरस्कार/सम्मान - आकाशवाणी दरभंगा से कहानी का प्रसारण डाक का सम्पूर्ण पता - आरती राय कृष्णा पूरी .बरहेता रोड . लहेरियासराय जेल के पास जिला ...दरभंगा बिहार . Mo-9430350863 . ईमेल - arti.roy1112@gmail.com