कविता

आस

सदियों का जो तप ये मेरा
ना जाने कब का व्रत ये मेरा
पल पल बिखरते हम रहे जिस चाह में
बुझते जलते हंसते रहे ख्यालात में
दिल के दर्द मेरे आंसुओ मे गिरते रहे
हम भी क्या पागल बने दर्द शब्दों में कहते गये
थी नही इतनी जफा ना हम समझे कभी
वो अकेला था नही एक राह मंजिल की
हम भटकते बस रहे यूं ही थकते रहे
नैन मेरे एकटक वहीं तकते रहे
गूंज खामोशी की कर झंकार अद्भुत
हो रहे थे कुछ सजल मृदुल भाव जो
चल पडे उस राह हम भी करबद्ध
हो गये हालात से हम बेखबर
जब भी ना थी कोई आस होगा अमर
ये धरा का पिघलता मधुरिम वलय
प्यास था विश्वास था आभास था
हो रहा प्रकाशित टूटता एक आस था

वन्दना श्रीवास्तव

शिक्षिका व कवयित्री, जौनपुर-उत्तर प्रदेश M- 9161225525