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हीर

सुबह सुबह जब पंछी भी नहीं जगे होते, हीर उस समय पनिहार से पानी लाकर पौधों में डाल देती। हीर गांव की एक अकेली विधवा है जिसके पति खदान में काम करते हुए अपनी जान गंवा बैठे थे। हीर का एक बेटा था और दस वर्ष की आयु में उसकी भी हैजा से मृत्यु हो गई। इस सदमें से बाहर आने का एकमात्र सहारा हीर ने पौधारोपण समझा। नित नए नए फलदार वृक्ष लगाती और सुबह शाम पनिहार से पानी लाकर उन पौधों को सींचती। गांव का हर व्यक्ति हीर से बात करने से कतराता था। न जाने कौन उनके मन में यह बात भर गया था कि हीर मनहूस औरत है। गांव के बच्चों को भी उससे बात करने से रोका गया था। धीरे धीरे हीर के लगाए पौधे बड़े होने लगे और फल देने लगे। पलम, आड़ू, सेब, नाशपती, लीची और न जाने कितने ही रसीले फलों का बगीचा तैयार हो गया था। हीर अकेली कितना खा पाएगी …… लेकिन गांव का कोई भी व्यक्ति उसके हाथों से फल नहीं खाता। बच्चे तो अबोध होते हैं। फलों को देखकर उनका मन ललचा गया। एक दिन इतवार की दोपहरी में सभी ने तय किया कि हीर ताई के बगीचे में जाकर फल खाएंगे। योजना के मुताबिक सभी बच्चे वहां पहुंच गए। हीर उन्हें देखकर बड़ी खुश हुई और चुपचाप उन बच्चों को फल खाते देखने लगी। कुछ समय बाद गांव के एक दो लोगों ने बच्चों को वहां देखा तो सबको बुलाकर लेे आए। कहने लगे कि मनहूस ने अपने पति और बच्चे को खा लिया अब हमारे बच्चों को भी पता नहीं क्या करेगी । बच्चे वहां से नहीं जाना चाहते थे मगर माता पिता जबरदस्ती लेकर चले गए और जाते जाते बेचारी हीर के जख़्मों पर नमक छिड़क गए। शाम के समय आसमान एकदम साफ था और अलसाई हुई गर्मी की संध्या अपने आप में अनोखी छटा बिखेर रही थी। हीर के मन में अपार दुःख उमड़ आए। वह सोचने लगी कि मेरे साथ ही नियति ने इतना क्रूर खेल क्यों खेला? न जाने हीर के मन में क्या आया उसने कुछ दवाई खा कर अपनी जिंदगी ही खत्म कर दी। अगली सुबह जब किसी ने उसे पनिहार से पानी लाते नहीं देखा और दिन चढ़ने पर भी नहीं दिखाई पड़ी तो लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई। उसके घर जाकर देखा तो हीर मरी पड़ी थी और हाथ में अपने बेटे की तस्वीर थी। लोगों ने नाक भौं सिकोड़ कर उसका दाह संस्कार यही कहकर किया कि मृत शरीर को घर गांव में नहीं रखा जा सकता। कुछ ही समय बाद वैश्विक स्तर पर फैली महामारी से सबका बाहर आना जाना बंद हो गया। जो शहर में थे वहीं रह गए जो गांव में थे वे भी कहीं नहीं जा सकते थे। बीमारी का ग्राफ रोज बढ़ता जा रहा था। गांव शहर से ज्यादा दुर तो नहीं था, इसलिए सभी रोज बाज़ार से ही फल सब्जी इत्यादि लाते रहते थे। अब जब घर से बाहर निकलना भी बंद था तो भीषण गर्मी में फल इत्यादि भी नहीं मिले। ऐसे में गांव के लोग शाम के समय टहलने जाते तो देखते कि हीर के बगीचे में अनेक प्रकार के रसीले फल शाखाओं पर झूल रहे थे। धीरे धीरे एक एक करके लोगों ने वहां से फल तोड़ना शुरू कर दिया। तब लोगों की जुबां पर यही शब्द रहता कि पेड़ पौधों पर तो सबका हक होता है। अब हीर के लगाए बगीचे में सभी जाते और फलों का आनंद लेते हुए कहते कि “हीर बेचारी कितनी अच्छी थी । बहुत मीठे फलों का बगीचा तैयार किया है बेचारी ने अकेले ही”। क्या यह प्यार हीर को जीते जी नहीं मिल सकता था? हीर के पति और बच्चे की मौत मात्र एक हादसा था लेकिन उसकी सजा आजीवन हीर को मिलती रही। समाज एक मिथक के आधार पर जीते जी किसी को भी अच्छा नहीं कह सकता। आज हीर अपने लगाए पौधों को यदि बच्चों का झूला बने देखती तो उसे कितना अच्छा लगता लेकिन हम झूठी समाजिक कुरीतियों के कारण इंसानियत भी भूल बैठे हैं।

रोमिता शर्मा “मीतू”
करसोग हिमाचल प्रदेश

रोमिता शर्मा "मीतू"

करसोग, हिमाचल प्रदेश