पर्यावरण

सावधान दक्ष, एक दिन बोलेंगे वृक्ष

मैं हूँ वृक्ष. मैं वनस्पतियों के प्रतिनिधि के रूप में अपने छोटे भाई मनुष्य के हितार्थ अपनी आत्मकथा लिख रहा हूँ, इसे उपकारों को गिनाना नहीं समझा जाए. वैसे भी हमने मनुष्य पर कोई उपकार नहीं किए हैं, प्रकृति माता ने हमें निमित्त बनाकर मनुष्य को उपहारों के अकूत भाण्डार दिए हैं, हमारी भूमिका तो मात्र एक डाकिये जैसी है, इसलिए इस कथा के माध्यम से मैं प्रकृति माता के मनुष्य के प्रति प्रेम की असीमित पराकाष्ठा को शब्दों में सीमित करने का प्रयास कर रहा हूँ. वैसे इसे आत्मव्यथा कहेंगे तो प्रसन्नता होगी, क्योंकि मनुष्य यदि सामान्य स्थितियों में ही निराश, अवसादग्रस्त, अप्रसन्न, अस्वस्थ, चिड़चिड़ा, अथवा आक्रोशित रहता है तो हमें तीव्रतम व्यथा होती है.
मुझे पेड़, तरु, विटप, झाड़, दरख्त, ट्री और भी न जाने किन-किन नामों से पुकारा जाता है. मेरा जन्म मनुष्य के जन्म के भी लाखों वर्ष पहले हुआ. इसलिए मेरे जन्म की कथा बहुत पुरानी है. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आज से पांच अरब वर्ष पहले सूर्य में हुए विस्फोटों के कारण उसके एक टुकड़े के रूप में धरती का जन्म हुआ. धरती भी प्रारम्भ में आग का धधकता हुआ गोला थी. लाखों वर्ष लग गए उसे ठण्डी होने में. हजारों वर्ष बाद धरती माता की गोद में पानी का अवतरण हुआ. लगभग दो सौ करोड़ वर्ष पहले धरती पर जीवन का शुभारम्भ हुआ. जल जीवों के उपरान्त अथवा साथ-साथ ही वनस्पतियों ने भी धरती की गोद को हरी-भरी करने का काम सम्भाला. वनस्पति होने के चलते मेरा जन्म भी इसी क्रम में हुआ है.
कोई पचास लाख वर्ष पूर्व वनमानुष का जन्म हुआ, जो हमारी ही छत्रछाया में पला-बढ़ा और हमारी उपस्थिति में उसे सुरक्षा का बोध होता था, क्योंकि जंगली जानवरों से रक्षा का काम हमारी डालियां, कोटर और पत्तें ही करते थे, उसे अपनी गोद में छिपा लेते थे. हम उनके सच्चे संरक्षक और अभिभावक थे, कन्द, मूल, फल के माध्यम से हम उसे जीवन का अनुदान देते रहे हैं. आधुनिक मानव (होमोसेपियन) के जन्म को कुछ वैज्ञानिक दो लाख वर्ष पहले का मानते हैं और कुछ पांच से दस लाख वर्ष पहले का. वनमानुष की तरह मनुष्य भी हमारी गोद में ही पलता-बढ़ता, विकसित होता रहा. इस संक्षिप्त परिचय से आप यह तो समझ ही गए होंगे कि हमारा अर्थात् पेड़-पौधों का अस्तित्व मनुष्य की कृपा पर कदापि निर्भर नहीं है. यह कहकर मैं मनुष्य पर कृतज्ञता नहीं जताना चाहता हूँ क्योंकि श्रीरामचरितमानस आदि शास्त्रों में लिखा है कि उपकारों का उल्लेख अपने मुख से नहीं करना चाहिए. हमने तो मनुष्य को अपनी ही धरती माता की कनिष्ठ सन्तान मानकर, अपने ही वृहद् परिवार के छोटे भाई-बहनों की तरह मुक्तकंठ से लाड़-प्यार, दुलार दिया. हम अपना प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, ममत्व आदि सहज रूप से उड़ेलते रहे. इसीतरह हमने मनुष्य को सब कुछ दिया, सीमा से अधिक दिया, सर्वस्व लुटाकर और बलिदान देकर भी दियाI निमित्त होने के नाते हमें यह सब देना ही था.
तनिक ठहरिए, उन उपकारों पर दृष्टिपात करते हैं, जिन्हें माता प्रकृति ने हमें निमित्त बना कर मनुष्यों को दिए हैं. वनस्पति जगत के हम सब सदस्यों ने मिलकर मनुष्य को तरह-तरह के स्वादों, रंगों, सुगंधों, आकार-प्रकार और पौष्टिकता से भरपूर फल, फूल, अन्न, कन्द, मूल, छाल, पत्तियां, डालियां आदि दिए. रंग और सुगंध का ऐसा सुन्दर और मनभावन संसार रचा ताकि मनुष्य सदा सर्वदा स्वस्थ, शक्तिमान और प्रसन्न रह सकें. पहले मनुष्य की नग्नता को हमने अपने पत्तों का बलिदान कर छुपाया, फिर हमारे अंगों से बने वस्त्रों ने उसकी लाज की रक्षा की. यह क्रम आज तक अनवरत चल रहा है. सच कहूं, धरती माता की कनिष्ठ और चलती-फिरती-दौड़ती-हंसती-खेलती, नटखट सन्तान होने के नाते हमें भी उसके लिए सबकुछ न्यौछावर करना अच्छा लगता रहा है, अपनी सीमा से अधिक प्यार, दुलार और अनुदान दिए, देते रहे हैं. पहले मनुष्यों को अपनी डालों, पत्तों और कोटरों में रहने के लिए स्थान दिया, फिर अपने ही तन को काटकर लकड़ियां और हरी पत्तियां दी, इनसे बनी झोपड़ियों में इसने अपनी छोटे-बड़े जीव-जंतुओं, धूप, बरसात, ठण्ड और तूफानी हवाओं से रक्षा की. कालान्तर में मनुष्यों के पक्के घरों में छत, दीवार, फर्नीचर, दरवाजे, खिड़कियां आदि बनकर हमने इसे त्याग से परिपूर्ण प्रेम का अनुदान दिया, अपने प्राण त्याग कर भी दिया.
अपने छोटे भाई, मनुष्य को ठण्डी हवाओं से बचाने के लिए हम सदियों तक अपना तन अग्नि को समर्पित करते रहे हैं, स्वाद के चक्कर में, भोजन को अग्नि पर चढाने के नाम पर हमारे अंगों को जलाने का क्रम शताब्दियों से अविराम चल रहा है. मनुष्य ने अपनी ही बुद्धिमानी या यूं कहूं कि दुर्बुद्धि के अतिरेक में जब प्राकृतिक नियमों की सीमाओं को लांघने का दुस्साहस किया तो रोगों ने उसे परास्त करना आरम्भ किया. जबकि अथर्ववेद में स्पष्ट घोषणा की है कि मनुष्य सर्वथा अपराजित है, रोगों से भी. “अष्टचक्रा नवद्वारा देवानाम् पूरयोध्या अर्थात् आठ चक्रों और नौ द्वारों वाली देवताओं की नगरी यह मानव शरीर कभी पराजित नहीं (अयोध्या, जिससे कोई युद्ध ना कर सकें) होने वाला है, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार मनुष्य के सभी प्रवेश द्वारों (और त्वचा में भी) में नैसर्गिक रूप से ऐसी सशक्त रोग प्रतिरोधी व्यवस्थाएं होती हैं कि कोई रोग या रोगाणु उसमें सरलता से प्रवेश नहीं कर सकता है. परन्तु आत्मघाती मनुष्यों ने स्वयं अपनी रोग प्रतिरोधी शक्तियों को अपनी दुर्बुद्धि के चरणों में समर्पित कर रोगों को आमंत्रित करना आरम्भ कर दिया. अपने छोटे भाई को रोगों से ग्रस्त देखकर हमने अपने ही अंगों के औषधीय गुणों के माध्यम से उसे निरोगी बनाना आरम्भ किया. क्या मनुष्य हमारे अभाव में दवा-दारू कर सकता है? अपने शौर्य, बुद्धिमत्ता, कवित्त, ऐश्वर्य और विविध आयामी कृतित्वों को ऐतिहासिक पांडुलिपियों के रूप में चिरंजीवी बनाने की मंशा की पूर्ति के लिए हमारी छालों-पत्तों और बाद में हमारे शरीर के बलिदान से बने कागज का उपयोग करने लगा है और स्याही भी हमारे अंगों से ही बनाई जाती रही है. रोटी, कपड़ा, मकान, दवा, कागज, स्याही, होली के रंग, कास्मेटिक्स, शराब, औजार, हथियार, बुढापे का सहारा यानी लाठी, फर्नीचर, सुगन्धित पदार्थ, इत्र, आदि असंख्यात अनुदान तो प्रत्यक्ष हैं. माता प्रकृति ने हमारे माध्यम से मनुष्य को अनेक परोक्ष उपहार भी उपकार स्वरूप दिए हैं.
ग्लोबल वार्मिंग के विरुद्ध शंखनाद
वातावरण में प्राणवायु और कार्बन डाई ऑक्साइड का सन्तुलन बना रहे, इसलिए हम दिन में सूर्य के प्रकाश में वातावरण की कार्बन डाई ऑक्साइड को पी जाते हैं और बदले में मनुष्यों और अपने लिए भी भोजन का निर्माण करते हुए प्राणवायु का भी सृजन कर वातावरण को सौंप देते हैं ताकि मनुष्यों के प्राण बने रहें और बचे रहें. इसतरह हम ग्लोबल वार्मिंग के लिए उत्तरदायी वायुमण्डलीय कार्बन डाई ऑक्साइड को कम कर प्राणवायु का स्तर बढाने का काम करते हैं, हम यदि ऐसा नहीं करें तो मनुष्य दिन में भी अलसाने लगेगा और सुप्तावस्था में जा सकता है.
बादलों से प्रार्थना, सुन लो हमारी याचना
बरसात की बात करें तो जब आकाश में बादल अठखेलियां करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं, तो हमारी पत्तियों और अन्य अंगों से निकली आर्द्रता (नमी) उन्हें बरसने के लिए आमंत्रित करती हैं, और वे उस नमी की मनुहार का सम्मान करते हैं, पानी से भरे बादल मनुहार के बड़े कच्चे होते हैं, और बरस पड़ते हैं. यदि बादलों को हम (वृक्षों) से निकली आर्द्रता आमंत्रण नहीं दें तो वे अपनी अगली यात्रा पर निकल पड़ते हैं, इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि माता प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की है कि मनुष्य को यदि जीवनदायी पानी चाहिए तो वह अपने बड़े भ्राता अर्थात् वृक्षों-वनस्पतियों-वनों-उद्यानों का सम्मान करता रहे.
छाया का महत्व क्यों अनदेखा किया जा रहा है
हमें प्रकृति माता ने एक दिन श्रीरामचरितमानस का यह दोहा सुनाया था “सब मम प्रिय, सब मम उपजाए, सबसे अधिक मनुज मोहि भाए और फिर स्पष्ट कहा था, “सुनो वृक्षो-वनस्पतियो ! मेरी सबसे प्रिय सन्तान मनुष्य है, उसे तनिक भी कष्ट ना होने देना. तब हमने माता को वचन दिया था कि हम आपकी प्रियतम सन्तान के सुख के लिए अपने प्राण भी देना पड़े तो पीछे नहीं हटेंगे. उसी वचन का निष्ठापूर्वक पालन हम सदियों से कर रहे हैं, पहले तो मनुष्य विवेकवान थे, वे सह जीवन में विश्वास करते थे, इसलिए फल, फूल, डाल लेते समय हमसे प्रार्थना करते थे, ऐसा भी होता था कि औषधि के लिए ले जाने के लिए मनुष्य एक दिन पहले निमंत्रण देकर जाता था. अब तो स्वार्थ में अंधा हुआ मनुष्य वनों के सभी पेड़ों की लकड़ी बेचने के लिए आग लगवा देता है और फिर आग बुझाकर पूरा जंगल बेच खाता है. कभी पेड़ों में कीड़ें लगने की बात कहकर, वह कुछ पापियों के साथ मिलकर पूरा जंगल ही हजम कर जाता है. यह महापाप ही तो है. श्रीरामचरितमानस में लिखा है कि हर लाभ पर लोभ बढ़ता ही जाता है, मनुष्य ने तो लोभ की सभी सीमाओं को लांघ दिया है.
कड़ी धूप में जब मनुष्य काम पर निकलते हैं तो उनके शरीर का पानी पसीना बनकर इतना ना निकल जाए कि निर्जलन (डिहाइड्रेशन) की स्थिति हो जाए, इसलिए हम सदैव ही चंवर डुलाने की तरह अपनी डालियों और पत्तों को चंवर की तरह डोलाते रहते हैं, ताकि शीतल, मन्द और सुगंधित संजीवनी जैसी पवन मनुष्यों को मिलती रहे. हमारी छाँव के बारे में श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में एक सुन्दर चौपाई रचते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि “जो अति आतप ब्याकुल होई. तरु छाया सुख जानइ सोई, अर्थात् जो धूप से अत्यन्त व्याकुल होता है, वही वृक्ष की छाया का सुख जानता है. वर्तमान में शहरों के लोग वृक्षों और उनकी छाया के अभाव में इतने विकल हो जाते हैं कि सड़कों पर अकारण ही लड़ने-भिड़ने लगते हैं. एक अध्ययन किया जाना चाहिए, ताकि हमारी परोक्ष भूमिका का संज्ञान हो सकें. तीन ट्रेफिक के जवानों का ग्रीष्म ऋतु में प्रतिदिन छ घण्टों के लिए एक माह की पोस्टिंग लगाई जाए, क्रमशः एक जवान की किसी एक चौराहे पर घने पेड़ के नीचे, दूसरे की टीन शेड की छाँव में, और तीसरे जवान की ड्यूटी खुली धूप में लगाई जाए और उनकी मन:स्थिति और भावनात्मक (इमोशनल) स्थितियों का अध्ययन के आरम्भ और उपरान्त तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो हम वृक्षों की महत्ता के विषय में बहुत कुछ समझ में आ सकेगा. सूर्य भगवान की उष्ण रश्मियां जब ग्रीष्म ऋतु में सीमेंट-कांक्रीट के मकानों (स्मरण रहे घर नहीं) को गर्म कर देती हैं, तो संवाहन (कंडक्शन) के माध्यम से उस प्राण लेने वाली उष्णता को अपनी ओर खींचकर सोखने का काम कर हम भीषण गर्मी से रक्षा करते हैं.
ध्वनि और वायु प्रदूषण से रक्षा
बुद्धि और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर किए जा रहे स्वास्थ्यघातक शोर को भी हम सोख कर उसके दुष्प्रभाव को कम कर मनुष्य की रक्षा करते हैं. वाहनों से निकले विषैले धुएं, फैक्ट्री, कारखानों आदि से निकले बहुत हानिकारक तत्वों और धूल-कचरे को भी हम नीलकंठ शिवजी की तरह विषपान कर मनुष्यों की रक्षा करते हैं. हमें शहरों से पूरी तरह मिटा देने के उपरान्त मनुष्य को पता चलेगा कि हमारी डालियों, पत्तों, फूलों पर जमा होने वाले रसायन और धूल, जब उसके स्वयं के और उसकी लाड़ प्यार से पली-बढी संतानों के फेफड़ों पर जमने लगेगी और रोगों की अटूट-अखण्ड सौगातें मिलने लगेंगी तो क्या होगा.
विशाल वृक्ष: एयर कंडीशनर, झूलाघर, चिड़ियाघर, ऑक्सीजन प्लांट और भी न जाने क्या-क्या
यह भी स्मरणीय है कि बरगद, गूलर, पीपल, आम, नीम जैसे विशाल वृक्ष तो मनुष्य की सेवा में सैकड़ों वर्षों तक तैनात रहते हैं. अकेला एक बरगद ही, छोटे-से जंगल की रचना कर मनुष्य की सेवा में खरीदे हुए दास की तरह कोई कोताही नहीं बरतता है. वह तो उसके बच्चों के लिए भी उद्यान, झूलाघर, जिमखाना, चिड़ियाघर आदि की तरह काम करता है. बरगद की छाँव और ठण्डी हवा का मुकाबला बड़े से बड़ा तम्बू और विशालतम दस-बारह एयर कंडिशनर भी नहीं कर पाते हैं. एक परिपक्व गूलर के पेड़ पर डेढ़-दो हजार पक्षी अपना घरोंदा बना लेते हैं, जो जैव चक्र और पारिस्थितिकी के सन्तुलन की दृष्टि से महती भूमिका निभाते हैं. पक्षी प्राकृतिक कीट भक्षक होने के साथ-साथ वे विभिन्न वृक्षों के फलों को बीजसहित खाकर सुदूर और दुर्गम स्थानों तक बीजारोपण करने का दु:साध्य काम करते हैं. मनुष्य को लगता है कि सम्भवत: जंगल अपने आप पैदा हो जाते होंगे, वास्तव में उसे वृक्षों और उन पर बसने वाले पक्षियों की विशिष्ट भूमिका का ज्ञान ही नहीं है. वैज्ञानिकों ने अपने शोध अध्ययनों के बाद बताया कि पीपल और अन्य कई पेड़-पौधें 24 x 7 x 365 दिन प्राणवायु का उपहार देते रहते हैं. अधिकांश मनुष्यों को तो अभी कोविड 19 के समय ऑक्सीजन की महत्ता का ठीक से पता चला है, परन्तु माता प्रकृति ने तो इसकी व्यवस्था पहले से कर रखी है.
विश्वयुद्ध और पीने का पानी
आधुनिक वैज्ञानिकों, पर्यावरणशास्त्रियों और विचारकों का मानना है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा है. इस विभीषिका से मानव और मानवता को बचाने के लिए हम शताब्दियों से बरसाती पानी को अपनी जड़ों का वाटर रिचार्जिंग पाइप की तरह उपयोग कर गहराई में उतार कर भूजल भण्डार बढाने का काम भी करते रहते हैं. ताकि गर्मी के मौसम में नलकूपों से मनुष्य को पानी भी मिलता रहे और भूगर्भीय सन्तुलन भी जैसे तैसे बना रहे. यदि धरती के भीतर के वातावरण में असन्तुलन होता है तो ज्वालामुखी, भूकम्प, सुनामी आदि जैसी कथित प्राकृतिक (अस्तु, मानवजनित) आपदाएं विनाश का ताण्डव मचा सकती हैं.
समुद्र को बांधने का दायित्व भी वनस्पतियों को दिया
सूनामी के कारण आई बाढ़ ने जो विनाश लीला रची थी, उसका कारण समुद्र तटों पर प्राकृतिक रूप से उगे मैंग्रोव नामक वनस्पति को मनुष्य के द्वारा विवेकहीनता के चलते काटा जाना था, यह वैज्ञानिकों की टिप्पणी थी. वास्तव में मैन्ग्रोव एक ऐसी वनस्पति है, जो दल-दल में उगती है और नीचे भूमि में अपनी जड़ें जमा कर इसे स्थायित्व देती है और मिट्टी को भी पकड़े रखती है, इसलिए प्रकृति ने उन्हें समुद्री बाढ़ को थामने के लिए तटों पर डटे रहने का दायित्व सौंप रखा है.
मानवीय गुणों के विकास और अन्तिम सत्य से साक्षात्कार में वृक्षों की भूमिका
मानव जाति पर वृक्षों, वनस्पतियों के माध्यम से माता प्रकृति के अनुदानों का क्रम यहीं समाप्त नहीं होता है, बल्कि एक कदम आगे बढाते हुए प्रकृति ने हमारी छाँव में मनुष्यों की मुक्ति का मार्ग भी सुनिश्चित कर दिया था. वृक्षों के सामीप्य में ही समस्त मानवीय गुणों का विकास होता है. राजकुमार सिद्धार्थ ने पीपल के वृक्ष की गोद में तप करते हुए केवल ज्ञान या अन्तिम सत्य से साक्षात्कार कर बुद्धत्व की प्राप्ति की. भगवान शिव वटवृक्ष के तले समाधिस्थ होते हैं. भगवान श्रीराम का वनवास पंचवटी की छाया में सुगमता से सम्पन्न हो जाता है. कदम्ब की गोद में अठखेलियां करते श्रीकृष्ण का बचपन पौराणिक कथाओं में रूपान्तरित हो जाता है. सभी चौबीसों जैन तीर्थंकरों ने अशोक वृक्ष के नीचे दीक्षा ली और सभी जैन तीर्थंकरों को केवल ज्ञान (अल्टीमेट ट्रुथ) की प्राप्ति किसी न किसी पेड़ के तले ही प्राप्त हुई है. धरती माता की पुत्री माता सीता, राम विरह में अवसादग्रस्त न हो जाए, इसीलिए लंकाधिपति रावण ने उन्हें अशोक (शोकरहित) रखने के लिए अशोक वाटिका के वृक्षों के मध्य उनके निवास की व्यवस्था की. भगवान दत्तात्रेय तो सदा सर्वदा गूलर के वृक्ष के तले खड़े दिखाई देते हैं. यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि मनुष्य के भीतर सहिष्णुता, उदारता, दया, ममता, अहिंसा, समन्वय क्षमता, मानवता, समरसता, पारिवारिकता, सहनशीलता, करुणा आदि गुणों का विकास वृक्षों की उपस्थिति में ही सम्भव है. आज जो भारत में पारिवारिक विखण्डन हो रहा है. यह हम वृक्षों सहित प्रकृति के उपकारों के प्रति मानवीय कृतघ्नता का ही सहज परिणाम है, मनुष्यों ने जंगलों को नष्ट करने के साथ-साथ वन जीवों और पक्षियों से भी उनके घर और जीवन छीन लिए हैं, कई पक्षियों और कुछ जन्तुओं की प्रजातियां लुप्त होने की कगार पर पहुँच चुकी हैं.
धार्मिक ग्रंथों में वृक्षों की पूजा का विधान
अपने आपको सर्वश्रेष्ठ और बुद्धिमता के चरम शिखर पर विराजमान मानव पता नहीं किस धुन में अपनी ही जड़ों पर कुल्हाड़ी मार रहा है. बबूल बोकर वह आम की कामना किस परखे हुए सिद्धांत के तहत कर रहा है? मनुष्यों के मन में वनस्पतियों-वृक्षों के प्रति कृतज्ञता का भाव सदैव जीवन्त रहे तथा वृक्षों से मिलने वाले लाभ सदैव उसे मिलते रह सकें, इसीलिये वेदों-उपनिषदों, गीता, रामायण, श्रीमद्भागवत सहित सभी ग्रंथों, यहाँ तक कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र और राजनीति के प्राचीन ग्रंथों में प्रकृति सहित वृक्षों की रक्षा के प्रत्यक्ष और परोक्ष निर्देश दिए गए हैं. हर देवी-देवता की पूजा से किसी न किसी पेड़-पौधें या घांस को जोड़ा गया है. पूजा, यज्ञ आदि की दृष्टि से फल, फूल, पत्ती, घांस की विशेष प्रजाति अवश्य बताई गई हैं. पावन प्रसंगों और उत्सवों पर विभिन्न वृक्षों की पूजा का विधान शास्त्रों में इसी दृष्टि से दिया गया है. तिथि विशेष पर वटवृक्ष, आंवला, पीपल, आम, केला, नीम, तुलसी, बेल, गूलर, आदि वृक्षों की पूजा की जाती है. मध्य प्रदेश के मालवा और निमाड़ में तो गाँवों की महिलाएं जब भी किसी बुजुर्ग पेड़ के सामने से गुजरती हैं तो सिर पर सम्मान की दृष्टि से पल्ला ढांप लेती हैं. ऐसा वे हम वृक्षों को अपने परिवार का वरिष्ठ सदस्य मानकर सम्मान देने की दृष्टि से करती हैं.
अर्थप्रधान शिक्षा के दुष्परिणाम
हजारों वर्षों तक वृक्षों की रक्षा और पूजा की परम्परा निर्बाध चलती रही, पवित्र पेड़ों की हत्या नरक का अधिकारी बना देती है, ऐसे शास्त्रीय वचनों को अनदेखा करते हुए पिछली एक डेढ़ शताब्दी से मैकालेवादी धनप्रधान शिक्षा के चलते स्वार्थी मनुष्यों ने वनों, वृक्षों और जलाशयों को समाप्त कर, सीमेंट-कांक्रीट के जंगलों के निर्माण का मानों अनवरत महाअभियान चला दिया है. कभी सड़कों, कभी कारखानों, कालोनियों-अट्टालिकाओं और फार्म हाउसेस के नाम पर हमारी निर्ममता और बर्बरतापूर्वक सामूहिक हत्याओं का अनवरत क्रम चल रहा है. वन के रखवालों ने तो जिम्मेदारों-जवाबदारों की सहमति से समूचे जंगल जला डालें हैं. इसकी परिणति व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और सर्वव्यापी महाविनाश का कारण बनेगी, यह जानते हुए भी जानबूझकर अनजान बनने का नाटक दिन दुनी रात चौगुनी गति से निरन्तर चल रहा है. मात्र प्राकृतिक आपदाओं, ग्लोबल वार्मिंग तक की बात होती तो कोई बात नहीं थी, परन्तु उसकी आंच मनुष्यों के पारिवारिक सम्बन्धों को लीलने लगी है, अकारण विवाद, अकारण क्रोध, असहिष्णुता, पारिवारिक विखण्डन, परस्पर शत्रुता, हिंसा, अपराधों की बाढ़ आदि आज मानव और मानवता घाती होते जा रहे हैं.
वृक्ष विनाश: दुष्परिणामों का अम्बार
मनोशारीरिक रोगों के साथ-साथ एलर्जी, दमा, कैंसर, हृदयरोग, मधुमेह, अवसाद, निराशा, आत्महत्या आदि का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है. वातावरण में प्राणवायु की मात्रा कम और कार्बन डाई ऑक्साइड तथा अन्य विषैले रसायनों का प्रतिशत निरन्तर बढ़ रहा है. ग्लोबल वार्मिंग के चलते उत्तर और दक्षिण ध्रुवों की बर्फ अधिक मात्रा में पिघल सकती है, समुद्रतटीय महानगर जलमग्न हो सकते हैं, ऐसी बहुआयामी महाविनाश की वैज्ञानिक आशंकाएं हैं, परन्तु जीवजगत का कथित रूप से सबसे बुद्धिमान और विवेकवान प्राणी मनुष्य स्वयं ही अपने क्षुद्र स्वार्थों तथा अहंकार के चलते ऐसी आपदाओं को आग्रहपूर्वक निमन्त्रण दे रहा है. मनुष्य यह भूल चुका है कि वनस्पति और प्रकृति के अन्य उपांगों के विनाश की कथा के अगले पैराग्राफ से समूची मनुष्य जाति के सर्वनाश की लघुकथा का आरम्भ अपरिहार्य रूप से होता है. वस्तुतः वृक्षों को बचाने का अर्थ है कि आत्मरक्षा के लिए उठाया गया विवेकयुक्त कदम. मनुष्यों द्वारा पौधरोपण या वृक्षारोपण नहीं करने से वनस्पति जगत समाप्त हो जाएगा, यह भ्रम मनुष्य को नहीं होना चाहिए. प्रकृति के पास पौधरोपण की उसकी अपनी सक्षम व्यवस्था है. तभी तो मनुष्य के अवतरण के पूर्व घने जंगलों का विशाल संसार अस्तित्व में था. पशु-पक्षी फल, अनाज आदि खाते हैं, तो उनके बीजों को अपने मल के साथ ऐसे स्थानों तक पहुंचा देते हैं, जहां तक पहुँचना मनुष्य के लिए बहुत दुर्गम होता है. ऊंचे-ऊंचे पथरीले पहाड़ों, गहरी खाइयों, घाटियों, और सपाट दुर्गम बीहड़ जंगलों में घने-घने पेड़-पौधें, झाड़ियां, घांस, जड़ी बूटियां आदि का अम्बार प्रकृति की व्यवस्था के ही परिणाम हैं. कई प्रजातियों के हजारों पक्षी, पशुओं, तितलियों, मधुमक्खियों और हजारों प्रकार के छोटे-छोटे कीटों को आश्रय देने वाले सुन्दर-सुन्दर, रंग-बिरंगे सुगन्धित फूलों, पत्तियों-फलों से लदे वृक्ष-पौधें प्रकृति के सक्षम और अचूक प्रबन्धन के प्रमाण और परिणाम हैं. पशु-पक्षियों के पाचन तंत्र में उन बीजों का बीजोपचार (प्रोसेसिंग) होता है और फिर मल-बीट की श्रेष्ठ नम खाद में लिपटे बीज धरती माता की उर्वरा गोद में पहुंचकर अंकुरित होते हैं और मनमोहक पेड़-पौधों में परिणत हो जाते हैं. पेड़-पौधों के कारण हवा भी तेज चलती है, जो उनके बीजों को दूर-दूर तक ले जाती है.
अमृतादेवी का अनुपम प्रेरक बलिदान
वृक्ष विनाश या आत्मविनाश अभियान में सन 1730 में राजस्थान की विश्नोई जाति के 363 स्त्री-पुरुषों ने अमृतादेवी के नेतृत्व में आत्मबलिदान देकर रोड़े अटकाने का साहसिक और अनुकरणीय कार्य किया था. अमृतादेवी की तीन मासूम लड़कियों ने भी यह माना था कि यदि हमारे शीश भी कट जाते हैं तो पेड़ों की रक्षा में यह कोई बड़ा बलिदान नहीं होगा. शक्ति की अवतार इन नारियों के साथ पुरुषों ने भी पेड़ों की रक्षा में प्रसन्नतापूर्वक अपने सिर कटवा लिए, परन्तु अपने उपकारी पेड़ों की रक्षा से पीछे नहीं हटे. ऐसा उदाहरण पूरे वैश्विक इतिहास में नहीं मिलता है. चिपको आन्दोलन के प्रणेता श्री सुन्दरलाल बहुगुणा और ग्रीनबेल्ट आन्दोलन की नोबेल विजेता अफ्रीकी सुश्री वांगारी मथाई ने बड़ी क्रान्ति का सूत्रपात किया है. वर्तमान में भारत में अनेक वृक्षमित्रों को पद्म पुरस्कार मिलने से उनके कार्यों को सारा विश्व जानने लगा है और वे प्रेरणा के दिव्य स्रोत बन चुके हैं.
यदि मनुष्यता के अपरिहार्य विनाश को रोकना है तो शहरों में सुविधाओं से समझौता करते हुए, जहां स्थान मिले, वहां वृक्षों का रोपण युद्ध स्तर पर करना होगा अन्यथा व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य अकारण वैमनस्य को कोई नहीं रोक पाएगा, अभी तो सम्पति के लिए बेटों के साथ-साथ बेटियां ने भी माता-पिता की निर्मम हत्या करना आरम्भ कर दिया है, बेटियों को कोख में ही टुकड़ों-टुकड़ों में काटने की सुपारी कथित सहृदया स्त्री-चिकित्सक सहर्ष लेने लगी हैं और यदि प्रकृति के प्रति कृतघ्नता का यही क्रम यथावत चलता रहा तो ऐसी घटनाएं अत्यधिक प्रमाण में होने लगेंगी.
अन्त में, मैं, माता प्रकृति का वरिष्ठ पुत्र वृक्ष, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो.राबर्ट ए. इमेंस की पुस्तक “थैंक्स के इस कथन का उल्लेख करना चाहता हूँ कि “स्वस्थ तन, मन और बुद्धि तथा प्रसन्नता के लिए उपकारियों का आभार अनिवार्य रूप से मानना चाहिए. इसलिए प्रकृति की पूजा के संस्कारों की पुनर्प्रतिष्ठा करना होगी.
अस्तु, हम वृक्ष तो मनुष्य से प्रेम करते रहे हैं, करते रहेंगे, हम अपने कर्तव्य से कदापि विमुख नहीं होंगे, हमारा आशीर्वाद समूची मनुष्य जाति के साथ है.