यात्रा वृत्तान्त

झाँसी वीरता की एक विरासत

मेरी 8 साल की भतीजी अयाना जो कि काफी उत्सुक और जिज्ञासु है, हर समय प्रश्न पूछती रहती है। एक बार उसने मुझसे पूछा कि “मैं पूर्वजन्म में कौन थी।” कौतूहलता देख हँसी में मैंने कह दिया “पूर्वजन्म में आप झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी।” उसे विश्वास नहीं हुआ तो वो इस बात को घर के अन्य लोगों से पूछने लगी। उसके प्रश्नों से बचने के लिए सभी ने मेरी हाँ में हाँ मिलाते हुआ कहा – “आप पूर्वजन्म में रानी लक्ष्मीबाई थी, और इस जन्म में भी वैसे ही बहादुर और निडर बनना।” इसके बाद से वह खुद को रानी लक्ष्मीबाई समझने लगी।
         कभी-कभी जब हम कानपुर से राजकोट कार से जाते है तो रास्ते में झाँसी शहर देख अयाना रानी लक्ष्मीबाई का किला जाने की ज़िद करने लगती। हर बार हम अगली बार चलेंगे कह उसे फुसला देते।
            इस बार जब हम कानपुर से उदयपुर के लिए निकले तो यह वाक्या फिर घटा। संयोगवश उसी समय कार का सीएनजी समाप्त होने को था। इंटरनेट पर चेक करने पर मालूम हुआ कि एक सीएनजी पम्प किले के पास ही है। इस संयोग के साथ सबने भतीजी की जिद मान ली। जाने से पहले ऑनलाइन चेक करना मुनासिफ था कि सोमवार को किला कहीं बंद तो नहीं रहता? क्योंकि, अक्सर देखा जाता है कि रविवार को अधिक पर्यटक आने की वजह से ऐसे ऐतिहासिक स्थल साफ-सफाई के लिए सोमवार को बंद रहते है।
           इंटरनेट पर पता चला कि किला सातों दिन सुबह 7 बजे से शाम 6 बजे तक खुला रहता है। इस समय दोपहर के 3 बजे थे और हमारे पास पर्याप्त समय था किला घूमने के लिए। अयाना की खुश के लिए हमसब झांसी के किले की ओर चल पड़े।
              वैसे आमजन के लिए झाँसी किला पहुंचने का मार्ग काफी सुगम है। झाँसी रेलवे जंक्शन व बस अड्डे से किले की दूरी लगभग 3 किमी है। वहाँ से किसी भी लोकल परिवहन द्वारा आसानी से पहुँचा जा सकता है।
           15 मिनट में सीएनजी पंप से हम किले पर पहुँच गए। बरसात का मौसम होने से किले के अंदर का दृश्य सुहाना लग रहा था। वैसे पर्यटकों के लिये झाँसी घूमने का अनुकूल समय सितंबर से नवंबर और फरवरी से मार्च माना गया है। क्योंकि इस समय यहाँ का मौसम घूमने के लिए सही होता है। जब भी कहीं घूमने का प्लान करे तो वहाँ के मौसम का पता जरूर कर लेना चाहिए, क्योंकि अत्यधिक गर्मी हो या अत्यधिक सर्दी दोनो दुखदाई साबित होते है खासकर जब साथ में बच्चे और बुजुर्ग हो।
            वहाँ पहुँच कर हमने कार को पार्किंग स्थल पर लगाया जो कि किले के बिल्कुल सामने ही थी। फिर 25 रु/व्यक्ति प्रवेश शुल्क टिकट लेकर हमने किले में प्रवेश किया। वैसे विदेशी पर्यटकों के लिए यह शुल्क 300 रु है।
            किले के प्रवेश मार्ग पर एक रूट मैप का बोर्ड है जिसमे किले के अन्दर घूमने वाले स्थलों के नाम और उनकी लोकेशन दर्शायी गई है। इसके साथ वहां जगह जगह पर लगे बोर्ड /पत्थरों पर किले के महत्व को बखूबी से बताया गया है। बाहरी या विदेशी पर्यटक चाहे तो वहाँ पर उपलब्ध गाइड सुविधा भी ले सकते है।
            15 एकड़ के मुख्य दुर्ग संग किले का क्षेत्रफल 49 एकड़ है; जिसका निर्माण सन 1613 में ओरछा राज्य के शासक वीर सिंह जूदेव बुंदेला ने करवाया था। झाँसी का किला बुंदेलों के गढ़ों में से एक है। सन 1728 में जब मोहम्मद खान बंगश ने महाराज छत्रसाल पर हमला किया तब पेशवा बाजीराव ने महाराज छत्रसाल की सहायता कर मुगल सेना को पराजित किया। तब आभार हेतु महाराज छत्रसाल ने उन्हें उपहार स्वरूप अपने राज्य का यह एक हिस्सा पेश किया। सन 1766 से 1769 तक विश्वास राव लक्ष्मण ने झाँसी के सूबेदार के रूप में काम किया। इसके बाद रघुनाथ राव नेवलकर (द्वितीय) को झाँसी का सूबेदार नियुक्त किया गया। उन्होंने झाँसी राज्य के राजस्व में वृद्धि संग महालक्ष्मी मंदिर और रघुनाथ मंदिर का निर्माण करवाया।
              राव की मृत्यु के बाद उनके पोते रामचंद्र राव ने झाँसी की सत्ता संभाली। 1835 में उनकी मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी रघुनाथ राव (तृतीय) थे। जिनकी मृत्यु सन 1838 में हो गयी। इनके अक्षम प्रशासन ने झाँसी को बहुत ख़राब वित्तीय स्थिति में लाकर खड़ा दिया था। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने गंगाधर राव को झाँसी के राजा के रूप में स्वीकार कर लिया। सन 1842 में राजा गंगाधर राव की शादी कानपुर की मणिकर्णिका (मनु) से हुई जो बाद में रानी लक्ष्मी बाई के नाम से प्रसिद्ध हुई। लक्ष्मी बाई के पुत्र दामोदर राव जिनकी अपने जन्म से चार माह के उपरांत ही मृत्यु हो गई, का महाराज गंगाधर राव को बहुत सदमा लगा जिससे उनका स्वास्थ्य ख़राब रहने लगा। इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए एवं झाँसी के उत्तराधिकारी के लिए महाराज ने अपने चचरे भाई के बेटे आनंद राव को गोद लिया जिसका नाम उन्होंने दामोदर राव रखा, जिसकी सूचना ब्रिटिश गवर्नमेंट को एक पत्र के माध्यम से दी। नवंबर 1853 में महाराज की मृत्यु के पश्चात ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी के अधीन “डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स” कानून लागू किया जिसके मुताबिक दामोदर राव (आनंद राव) के झाँसी सिंहासन के दावे को खारिज कर दिया गया और रानी लक्ष्मीबाई को 60,000 रूपये वार्षिक पेंशन देने की बात कह महल छोड़ने का आदेश दिया गया।
              रानी ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया। फरवरी, 1857 में रानी ने एक घोषणा जारी की जिसमें उन्होंने सभी हिन्दू तथा मुसलमान भाइयों से अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने की अपील की। जिसके उपरांत मार्च – अप्रैल 1858 में कैप्टेन ह्यूरोज ने किले को चारो तरफ से घेर लिया। 17 दिनों तक भीषण युद्ध हुआ, जिसमें महिलाओं ने भी भाग लिया जिन्हें रानी लक्ष्मीबाई ने प्रशिक्षित किया था। इस युद्ध में गुलाम गौस खां और सैकड़ों सिपाही मारे गए। 4 अप्रैल 1858 की मध्यरात्रि में रानी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव संग कुछ विश्वासपात्र सैनिकों को लेकर किले से निकल गई। अपने कुछ सैनिकों के साथ अंगेजों से भयंकर युद्ध करती हुई रानी कालपी और ग्वालियर पहुँची, जहाँ से उन्होंने अपनी स्वतंत्रता संग्राम मुहिम जारी रखी। गंभीर रूप से घायल रानी लड़ते-लड़ते अन्ततः 18 जून 1858 को वीरगति को प्राप्त हो गई।
             निर्माण की दृष्टि से ये किला तीन भाग बारादरी, शंकरगढ़ और पंचमहल में विभाजित है। बारादरी वाले हिस्से में सबसे पहले बिजली तोप देखने को मिली। इस तोप का आकार काफी बड़ा है। गुलाम गौस खां साहब कड़क बिजली तोप को चलाते थे इस तोप की आवाज बहुत तेज बिजली जैसी थी तो इसीलिए इसका नाम बिजली तोप पड़ा। इस तोप पर आँख, भौं की कलाकृतियाँ भी अंकित है। बिजली तोप से थोड़ा आगे आने पर गणेश भगवान का एक मंदिर है। कहते है कि रानी लक्ष्मीबाई प्रतिदिन यहाँ पूजा करने आती थी। मन्दिर के पास से जो सीढियां ऊपर गई है वहाँ एक और तोप है, जिसका नाम भवानी शंकर तोप है।
         थोड़ा और आगे बढ़ने पर बारादरी है, जिसका निर्माण राजा गंगाधर राव ने अपने भाई के लिये सन 1838 से 1858 के मध्य करवाया था, यह बारादरी एक चौकोर से चबूतरे पर बनाई गई है। इसके छत को एक छोटे से जलाशय के रूप में बनवाया गया था, जिससे बारादरी में फौव्वारे चलते थे। सोचिए, कितना अद्भुत नजारा लगता होगा एक खुला हुआ बरामद और उसके ऊपर फौव्वारे वाला जलाशय!
           किले के दूसरे हिस्से पंचमहल (पंच तलीय महल) का निर्माण राजा बीरसिंह जूदेव ने करवाया था। इसके प्रथम तल का प्रयोग रानी लक्ष्मीबाई ठहरने और भूतल का प्रयोग सभा कक्ष के रूप में करती थी। समय के आभाव में हम सिर्फ पहला तल ही घूम पाए। पंचमहल से आगे बढ़ने पर पहले भैरव मंदिर फिर जम्पिंग स्पॉट है, ये वही जगह जहाँ से रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे को पीठ पर बाँधकर घोड़े के साथ किले की प्राचीर से कूद गई थी। यहाँ से नीचे देखने पर पता चलता है कि यह जमीन से कई फिट ऊँचाई पर है। उनकी स्मृति में इसी जगह एक शिला लगाई गई है जिसपर रानी की आकृति बनी है और नीचे लिखा है “बुंदेले हरबोलों के मुँह, हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी।।” यहाँ से थोड़ा ऊपर चलने पर किले का सबसे उच्चतम बिंदु है, जहाँ पर हमारे देश का तिरंगा खुले आसमान में लहराता रहता है। इस जगह से पूरे झाँसी शहर को देखा जा सकता है।
             किले के तीसरे हिस्से शंकरगढ़ में शिव जी का सुंदर मंदिर है। इस मंदिर का शिवलिंग ग्रेफाइट का है। इस हिस्से में गुलाम गौस खां साहब की कब्र, जेल, कालकोठरी, फाँसी घर इत्यादि भी है। वहाँ पहुँचकर हमें पता चला कि यहाँ शाम को 7 बजे एक लाइट एंड साउंड शो के माध्यम से रानी के जीवन के विषय में बताया जाता है।
            किले के बायीं तरफ 100-150 मी. चलने पर रानी महल है जिसे 19वीं शताब्दी में निर्मित किया गया था और वर्तमान में यहाँ एक पुरातात्विक संग्रहालय है। जिसके अंदर जाने का शुल्क 5 रु/व्यक्ति है। यहाँ हथियारों, टेराकोटा, मूर्तियों, परिधानों, काँस्य, चाँदी, सोने और तांबे के सिक्कों इत्यादि की प्रदर्शनी है। जो चंदेल वंश के राजाओं के जीवन और समय को, बुंदेलखंड क्षेत्र के इतिहास और विरासत को सजीवता से प्रस्तुत करती है। यहाँ पर1857 के स्वतंत्रता संग्राम में ब्रिटिश सेना द्वारा उपयोग किए गए हथियारों, शस्त्रों और गोला बारूद का प्रदर्शन भी किया गया है ।
          इस ऐतिहासिक स्थल को घूमने में लगा 3-4 घंटे का समय अयाना के चेहरे पर ढेर सारी खुशियाँ तो लाया, साथ ही हम सभी परिजन रानी लक्ष्मीबाई के अदम्य साहस का अनुभव करते हुए देश की आजादी में वीरों और वीरांगनाओं के महत्वपूर्ण योगदान से रूबरू हुए।
— सोनल मंजू श्री ओमर

सोनल ओमर

कानपुर, उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य की विद्यार्थी एवं स्वतंत्र लेखन sonal.omar06@gmail.com