गीत/नवगीत

वो आंख नही थी झील कोई

सब मयखाने बेकार लगे अब
नजर ही काफी थी उनकी
अब होश बाकी रहा नही
मय अभी बाकी थी उनकी

वो आंख नही थी झील कोई
देखा तो उसमें डूब गये
लहरों ने मुझको बहा दिया
अब इस दुनियां से ऊब गये
ले चलो मुझे उस साहिल पर-
जहां पे मौजे थे उनकी

एक जाम मिला एक तीर मिला
दोनों ही जीगर के पार हुऐ
अब तक तो अच्छे खासे थे
उस दिन से हम बीमार हुए
बेकार लगे दुनियां मुझको-
सिर्फ अदा ही अच्छी थी उनकी

सोलह सावन उमड़ रहे
उनकी काली घटाओं से
सारे सरगम शर्माएं
बस उनकी ही सदाओं से
क्या “राज” है मौसम बिगड़ गया-
देखा तो जुल्फे खुली थी उनकी

— राज कुमार तिवारी “राज”

राज कुमार तिवारी 'राज'

हिंदी से स्नातक एवं शिक्षा शास्त्र से परास्नातक , कविता एवं लेख लिखने का शौख, लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र से लेकर कई पत्रिकाओं में स्थान प्राप्त कर तथा दूरदर्शन केंद्र लखनऊ से प्रकाशित पुस्तक दृष्टि सृष्टि में स्थान प्राप्त किया और अमर उजाला काव्य में भी सैकड़ों रचनाये पब्लिश की गयीं वर्तामन समय में जय विजय मासिक पत्रिका में सक्रियता के साथ साथ पंचायतीराज विभाग में कंप्यूटर आपरेटर के पदीय दायित्वों का निर्वहन किया जा रहा है निवास जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश पिन २२५४१३ संपर्क सूत्र - 9984172782