एक उसके मिलने से हृदय पुलकित हो जाता था,
मन का उपवन बाग़-बाग़ हो फूले नहीं समाता था।
मैं वो थी जिसका नूर अम्बर को रिझाता था,
मैं पलकें उठाती उससे पहले वो सामने नज़र आ जाता था।
अब जीवन बेरंग है उसके बिना,
अब रसों से विहीन है हृदय उसके बिना।
मैं चाहूँ फिर से उसी के साथ जीना,
फिर चाहे शर शैया का आश्रय ही ले क्यों ना।
मैं तुम्हारी थी और रहूँगी सदा तुम्हारी ही,
काश ये बात तुम समझ पाते मेरे कहे बिना।
— रेखा घनश्याम गौड़