कविता

ठिठुरन भरी पूस की रात

हम गरीबों का मसीहा कौन है?
चांँद से बातें करता हूंँ ,
सिर पे  मांँ – बाप का हाथ नहीं,
पर , छोटे भाई का साथ है ,
अब खोने को कुछ बचा क्या है!
अपना कोई ठिकाना नहीं ,
सड़क पर भटकता हूँ  , मांँगने से  कुछ मिल जाता है,
छोटे भाई का आधा पेट भरता हूंँ , ख़ुद पानी पी के रहता हूंँ ,
क़िस्मत का खेल है , हम गरीबों का मसीहा कौन है?
अनगिनत तारों से  सवाल पूछता हूंँ।
ठिठुरन भरी पूस की रात में , न रज़ाई , न क़ंबल
एक दूसरे को गले लगा कर  पटरियों बैठा हूंँ ,
बदन के ताप से , थोड़ी  –  सी गर्माहट मिल रही ,
रोड पर जाते लोग , हाथ में कुछ सिक्के पकड़ा जाते हैं
तो कोई हम पर तरस खाकर ,
कपड़े का थैला पकड़ा जाता ,
कब तक टुकड़ों पर जिएंगे ,  इनसे अब गुज़ारा नहीं होगा ,
आसमाँ को देख सवाल करता हूंँ ,
हम गरीबों को मसीहा कौन है?
— चेतना प्रकाश ‘चितेरी’

चेतना सिंह 'चितेरी'

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