कविता

कलियुग का परिधान

चीर को कैसे चीर-चीर के,
कतरन जैसे वस्त्र हो गए,
अंग प्रदर्शन बना है फैशन,
निर्लज्जता सर्वत्र हो गए.

है देखो कैसा होड़ मचा,
यूं पश्चिम को अपनाने में,
है कोई कसर नहीं छूटा,
निज की संस्कृति भुलाने में.

अधनंगी होकर घूमे नारी,
गांव, गली, बाजारों में,
देख के मन ये विचलित है,
क्यों कमी हुई संस्कारों में.

मन की क्षुधा मिटाने को,
ये तन को कैसे झोंक रहें,
गर्त में डूबी लज्जा सारी,
कामुकता को सौंप रहें…

मर्यादा के किले गिर गए,
लूटें खजाने पुरखों के,
पतन समाज का होता है, जब
पानी मर जाए आंखों के.

पंचतत्व से निर्मित काया,
फूट-फूट कर करे विलाप,
इस पवित्र सी देव धरा पर,
फैल रहा कैसा अभिशाप

घुट-घुट कर ये मरता पट,
अब तन से रिश्ता तोड़ रहा,
ये नंगेपन की नवल चेतना,
किस ओर युवा को मोड़ रहा

जब कोई आवाज उठाए,
प्रति उत्तर एक ही आता है,
तुम बदलो अपनी नजरिया,
क्या बाप का तेरे जाता है ?

हैं विडंबना घोर समाज में,
किसको कोई समझाए,
जो जितना है संस्कारहीन,
वो उतना कुलीन कहलाए

— Raj Dheeraj Gupta