कविता

चमचागिरी जिन्दाबाद

वे कहते हैं
बन्द करो चमचागिरी
पर कैसे कर पाएंगे वे ऐसा,
बातें कहना व राय देना अलग बात है
और
असली जिन्दगी जीना दूसरी बात।
उन बेचारों की तो
जिन्दगी ही
टिकी हुई है चमचागिरी पर,
वे छोड़ दें तो
काफी आबादी
नहीं मर जाएगी भूखों ,
फिर चमचे नहीं होंगे
तो जमूरों और मदारियों की
वाह-वाह कौन करेगा,
ये चमचे ही हैं
जिनकी शहदिया अमृत वाणी
और जयगान
सुन-सुन कर
गधे भी घोड़े और हाथी हुए जा रहे हैं,
भौंदू भी शातिर और लोकप्रिय होने लगे हैं,
सूअरों के जिस्म से
इत्र की गंध आने लगी है
और
कुत्तों के मुँह से
होने लगी है संगीत की बरसात,
चमचागिरी ही तो है जो तय करती है
कुत्तों की बादशाहत
जिसके बूते
वे अपनी और परायी गलियों में
शेर होने का दंभ भरते हैं।
ये चमचे न होते तो
उन बेचारों की तो जान ही निकल जाती,
कई अधमरे पड़े रहते,
कई बेजान होकर,
ये चमचे ही हैंे
जो फूँकते हैं
इन बिजूकों में प्राण तत्व
और अहसास कराते हैं उन्हें
जिनकी आत्मा कभी की मर चुकी है।
चमचे हैं वे भी,
आका हैं वे भी,
चमचागिरी के ही बूते केवल
इन मुर्दों के
हाथ-पाँव चलते हैं,
दिमाग चलते हैं,
वे खुद भी चलते हैं
और जमाने को भी चलाते हैं।
बेमौत न मारो इन चमचों को
वंश ही समाप्त हो जाएगा
उनके आकाओं का
अगर चमचागिरी न रही, चमचे न रहे।
फिर बिगड़ जाएगा स्वाद
अभिनय की दाल का
जिसके बूते ये बहुरुपिये
लोगों को दे रहे हैं
स्वाद का भ्रम
और शंकाओं का सलाद।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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