सामाजिक

कबिरा खड़ा बजार में

देश और दुनिया का हर आदमी या औरत कोई कबीर नहीं है ;जो भरे बाज़ार खड़े होकर कहे: ‘कबिरा खड़ा बजार में,सबकी माँगे खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।। यही बात बहुत पहले से कुछ इस प्रकार कही जाती रही है: ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाक भवेत।’ ब्रह्मांड में सदैव से दो विपरीत शक्तियाँ अस्तित्व में रही हैं:अच्छी और बुरी, देवता और राक्षस, परोपकारी और अहितकारी,संत और असन्त, उदार और क्रूर।और सारा जगत बराबर चल रहा है।

अपने उदर पूर्ति के लिए सभी कुछ न कुछ कर्म करते हैं।जब सत और असत का अस्तित्व है ,तो उनसे युक्त व्यक्ति ,व्यक्तित्व औऱ मानव देह धारियों का भी अपना महत्व भी है। उदाहरण के लिए कुछ व्यवसाय या सेवाएँ बहुत ही जनहितकारी और मानव कल्याण के लिए उपयोगी मानी गई हैं।किंतु उनके मूल में विपरीत शक्तियाँ भी कार्यरत हैं। उदाहरण के लिए एक डॉक्टर, वैद्य या चिकित्सक को ले लीजिए। क्या वह अपने क्लिनिक या हॉस्पीटल पर यह लिखकर प्रार्थना कर सकता है कि विश्व में कोई बीमार न पड़ें।सभी स्वस्थ रहें और किसी को भी मेरे या किसी अन्य डॉक्टर के पास दवा लेने नहीं जाना पड़े।यदि वह ऐसा करता है औऱ वैसा हो भी जाता है ;तो वह अपने पैरों में आप ही कुल्हाड़ी प्रहारक नहीं माना जाएगा? वह तो यही प्रार्थना करेगा कि ज्यादा से ज्यादा लोग बीमार पड़ें और मेरे क्लिनिक पर दवा लेने आएँ तो मेरी आर्थिक स्थिति में वृद्धि हो।क्या उसकी यह सोच जनहितकारी होगी ? यद्यपि किसी डॉक्टर के चाहने से ऐसा नहीं होगा।जब कोई मशीन खराब होगी ,चाहे वह शरीर हो या कोई इंजन,वाहन,कल या अन्य कोई यंत्र।चलेगा तो बिगड़ेगा भी।इसलिए उसके सुधारने के लिए डॉक्टर, इंजीनियर,मिस्त्री, कारीगर आदि की भी आवश्यकता होगी ही।किसी के चाहने अथवा न चाहने से ऐसा कुछ भी नहीं होगा।यही बात किसी वकील, इंजीनियर, मिस्त्री ,मैकेनिक आदि पर भी लागू होती है।बात केवल सकारात्मक और नकारात्मक सोच की है। एक भद्र पुरुष या महिला की सोच सदैव सकारात्मक ही होनी चाहिए। सत और असत प्रवृत्तियाँ तो निरंतर अस्तित्व में रहेंगी ही।

‘जड़ चेतन गुण दोष मय विश्व कीन्ह करतार।’ के अनुसार तो यह समग्र संसार ही दो विरोधी शक्तियों से चल रहा है। लोहा है तो चुम्बक भी है। आकर्षण है तो विकर्षण का भी महत्त्व है। हमारी देह के अंदर और बाहर भी दो विरोधी शक्तियाँ सदैव कार्यरत रहती हैं। मन के भीतर द्विविधा और क्या है? वहाँ भी सकार और नकार का द्वंद्व सदैव चलता है।यदि राक्षस नहीं होंगे तो देवता निरंकुश होकर मनमानी पर उतर सकते हैं।

यदि रात नहीं होती तो दिन का भी कोई महत्त्व नहीं होता।इसी प्रकार सुख -दुःख, आनन्द -विषाद, जड़ -चेतन सबका अपना महत्त्व है। जन्म और मरण की अनिवार्यता से भला कौन इनकार कर सकता है। प्रकृति का सृजन भी विरोधी तत्त्वों से हुआ है। पंच महाभूतों में भी आग और पानी परस्पर विरोधी होने के बावजूद सृष्टि के लिए अनिवार्य हैं। पृथ्वी और आकाश की स्थिति भी कुछ इसी प्रकार की है।कर्ता के इस विचित्र रहस्य को भला कौन जान औऱ समझ पाया है।

निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि हमारी आपकी दृष्टि के अनुसार कुछ भी अच्छा या बुरा हो सकता है;किन्तु वास्तविकता यही है कि ऐसा कुछ भी नहीं है ।प्रकृति के सुचारु रूप से संचालन के लिए सब कुछ अनिवार्य है; अंधकार भी और उजाला भी।शुभ और अशुभ की धारणा हमारी अपनी रुच्यानुसार मनगढंत ही है।एक माँ को अपना एक आँख वाला बेटा संसार में सबसे सुंदर होता है ,जबकि उसको देखकर अन्य लोगों का शगुन बिगड़ जाता है।इस स्थिति को क्या कहा जाए? अच्छा और बुरा की अवधारणा सपेक्षिक ही है। जो एक के लिए शुभ है ,वही किसी अन्य के लिए अशुभ हो सकता है।जो जलवृष्टि कृषि ,पेड़ पौधों, जीवधारियों की प्यास बुझाती है; वही बाढ़ बनकर जन धन के विनाश का कारण भी बन जाती है।जल जीवन भी है और विनाशक भी है।अग्नि भोजन पकाकर हमारी क्षुधा पूर्ति करती है तो जलाकर नष्ट भी कर सकती है।एक ही तत्त्व, वस्तु, भाव आदि के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही रूप हो सकते हैं।जो हमारे अनुकूल है, वह शुभ अन्यथा अशुभ तो हो ही जाता है।दो मित्रों के बीच खटास आ जाने पर वही मैत्री सम्बन्ध विष वमन करने लगते हैं।

आइए इस विषय पर गंभीर,विश्लेषणात्मक और सकारात्मक चिंतन करें,अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर यों ही भला बुरा कहकर अपने सतही चिंतन औऱ तुच्छ सोच का प्रमाण न दें।

— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’

*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040