कविता

आत्मघात

चतुर्दिक चकाचौंध के मोहपाश से घिरकर
जो खींचे चले आए हैं
पतंगों की तरह
इस बाड़े के भीतर
आत्मघाती आन्दोलन के प्रणेता बनकर
अब महसूसने लगे हैं
खुद को मकड़ी की मानिन्द,
उलझते ही जा रहे हैं
गलियारों की भुलभुलैया में,
अपने भीतर
पदीय अहंकार की हाइड्रोजन गैस भर
उड़ने लगे हैं गुब्बारों की तरह
यहाँ-वहाँ।
बाहर से हो रही है बरसात
गुलाबी, काले, नीले
और सफेद तीरों की
कोई-कोई विषबुझे,
और उधर आदमी
घनचक्कर सा
बुढ़ियाता जा रहा है असमय।
बुदबुदाते हैं भविष्य के स्वप्न
उसके अवचेतन में
जिन्हें नहीं देखा जाना चाहिए
बेवक्त-बेमौसम।
यही सब तो चलता रहा है दशकों से,
और होता रहता है आत्मघात
किश्तों-किश्तों में।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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