लघुकथा

जिंदगी के फलसफे

आज सुरुचि आफिस से लौटने के बाद मम्मी को देखकर फिर परेशान हो गयी। पापा के जाने के बाद अकेली रह गयी मम्मी को वो पिछले हफ्ते अपने पास ले आयी थी।
दिन भर शून्य में ताकती, खामोश मम्मी को देखकर उसका मन दुखी हो जाता था।
अचानक उसे ख्याल आया, उंसकी एक सहेली मनोविज्ञान की डॉक्टर है। और कार स्टार्ट कर चल दी, उस सहेली से सलाह मशवरा करने चल दी।
“हेलो, डॉक्टर प्रज्ञा, कैसी हो?”
“वेरी फाइन, आज कैसे मेरी याद आ गयी।”
“सुन यार, मेरी मम्मी को मैं ले आयी हूँ, अकेली पड़ गयी थी। रिटायर्ड टीचर हैं, जब तक पापा साथ रहे, आल राउंडर थी, हर काम मे होशियार, सबसे आगे रहती थी। जब से पापा गये, जीवन से उदासीन हो गयी हैं, कैसे उनको खुश रखूं।”
“उनको अपने साथ घुमाओ, फिराओ, मूवी ले जाओ।”
“अरे यार, सुने तब न, खाना भी ठीक से नही खाती।”
“एक बात बताऊं, आज उनकी जनरेशन के जितने भी लोग रह गए हैं, हमलोगों के पास सब बेशकीमती हीरे हैं। अब हम सब का ये कर्तव्य है, कि उनकी जितनी भी उम्र बची है, पांच या दस वर्ष उसमें उनको येन केन प्रकारेण प्रसन्न रखने की कोशिश करे। जितना उन्होंने हमारे लिए परिश्रम किया, उतना हम अपने बच्चो के लिए नही कर सकते। आज तुम्हे अपनी मम्मी की फिक्र है, पर जरूरी नही कि, टू मिनट नूडल वाली तुम्हारी संतान भी तुम्हारी चिंता करे, समय बहुत तेज़ी से बदल रहा है। इसलिए माई डिअर सुरुचि कोई भी तरीके से, उन्हें बहलाओ, जहां उनका मन लगे, हरिद्वार, ऋषिकेश, गोआ, उनको घुमाकर लाओ। उनसे हमेशा बातें जरूर किया करो।”
“सही प्रज्ञा तुमसे बातें करके शांति मिली।”
— भगवती सक्सेना गौड़

*भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर