हास्य व्यंग्य

व्यंग्य – कविता में कविता कहाँ है?

धड़ल्ले से कवियों के सम्मेलन हो रहे हैं और बराबर होते भी रहेंगे।कवि हैं,तो उनके सम्मेलन तो होंगे ही।ये अखिल भारतीयता के स्तर से नीचे तो हो नहीं सकते। कोई विराट कवि- सम्मेलन हो सकता है ,किंतु आज तक एक भी बैनर ऐसा नहीं देखा या सुना गया ; जिस पर ‘लघु कवि सम्मेलन’ अथवा ‘मध्यम कवि सम्मेलन’ अथवा ‘मोहल्ला कवि सम्मेलन’ लिखा हुआ हो। भानुमती के पिटारे की तरह हैदराबाद, गाज़ियाबाद, फ़िरोज़ाबाद, इलाहाबाद, फ़तेहाबाद, मुरादाबाद,नजीबाबाद आदि शहरों से कुछ ‘निःशुल्क’ और कुछ सपारिश्रमिक (बेचारे इतनी दूर से परिश्रम करके आते हैं; इसलिए सशुल्क नहीं कह सकते ; ‘सपारिश्रमिक’ ही कहेंगे) ।

आप जानते ही हैं ,नि:शुल्क तो निःशुल्क ही है। उसे तो कुछ मिलना नहीं है।इसलिए वह स्थानीय भी हो सकता है। घर की मुर्गी दाल बराबर जो होने लगी है।इसलिए उसे ही हलाल करना अधिक आवश्यक माना जाता है।कभी- कभी उसे बैनर झंडे लगवाने ,टेंट के गड्ढे खोदने या खुदवाने, टेंट का विशाल पांडाल बनवाने, दरियाँ बिछवाने , मंच- सज्जा कराने जैसे अति महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भी बाइज्जत नियुक्त कर लिया जाता है। तब कोई एक ‘अखिल भारतीय कवि सम्मेलन’ सफलता पूर्वक सम्पन्न होने की स्थिति की प्राथमिक दशा को प्राप्त होता है।

‘सपारिश्रमिक कवि’ को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं। उसे तो बारात में पधारे हुए वरयात्रियों की तरह सब कुछ पका – पकाया चहिए।आए और जीमने बैठ गए। अब बात आती है कवि सम्मेलन की।भले ही मोहल्ले भर के दर्शक और श्रोता इकट्ठे न हों ,किंतु अखिल भारतीय के स्तर से कम तो कहलाया ही नहीं जा सकता। यह कवि सम्मेलन का न्यूनतम सोपान है। विश्व स्तर के कवि सम्मेलन में किसी पड़ौसी देश का प्रवासी भारतीय यदि पधार जाए तो उसकी विश्व स्तरीयता का मानक पूरा हो जाता है।इस देश में ‘अखिल ब्रह्मांड स्तर’ के कवि सम्मेलन होना भी सामान्य – सी बात है, बस बैनर ही तो बनवाना है।शेष सब वही का वही।

इन महा कवि सम्मेलनों की एक विशेषता यह देखी जाती है कि इन्हें कवि सम्मेलन कहने से पहले सोचना पड़ता है कि ये कवि सम्मेलन हैं या कुछ और।मेरे मंतव्य के अनुसार इनका नाम ‘महा हा ! हा !!ठी! ठी!! सम्मेलन’, ‘महा चुटुकला सम्मेलन’, ‘महा हास्य सम्मेलन’ अथवा ऐसा ही कोई अन्य नाम होना उचित जँचता है; परन्तु नामकारण से पूर्व भला मुझ अकिंचन को कौन पूँछने जा रहा है? जब इन कवि सम्मेलनों का नामकरण बदला जाएगा तो कवियों को भी कवि नहीं कहा जायेगा।उन्हें भी चुटकुलेबाज,लतीफ़ेबाज, या हास्यकार आदि किसी भी नाम से सम्मानित किया जाएगा।

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि इन तथाकथित सम्मेलनों में अस्सी प्रतिशत समय में केवल चुटकुले सुना – सुना कर श्रोताओं को मूर्ख बनाया जाता है। उधर हमारे श्रोतागण भी वैसे ही हैं ,जिन्हें कविता और चुटकुले में अंतर ही पता नहीं है। वे चुटकुले को ही कविता – पाठ समझ लेते हैं।कोई कवि किसी कवि के निजी जीवन की हस्यपरक धज्जियाँ उधेड़ने लगता है ,कोई किसी की सुंदर पत्नी के सौंदर्य सागर में गोते लगाने लगता है। और यदि मंच पर कोई सुंदरी कवयित्री दिख गई तो कहना ही क्या?सोने में सुहागा वाली कहावत ही चरितार्थ हो गई।फिर तो श्लीलता को ताक पर रख कर जो कुछ कहा औऱ सुनाया जाता है ;उससे तो बड़े बूढ़ों में भी वसंत का संचार हो- हो जाये। उधर कवयित्री भी कब पीछे रहने वाली हैं, वे भी नहले पर दहला मारते हुए तीर पर सुपर तीर बौछार करने में कब पीछे हटने वाली हैं? इस प्रकार वाद- संवाद की स्थिति के दौर से गुजरता हुआ तथाकथित सम्मेलन अपनी चरम गति को प्राप्त हो जाता है। अंत में चलते -चलते रही- बची ऊर्जा के साथ दो चार मिनट की कविता भी अपनी अंतिम गति को प्राप्त हो लेती है ।एक छोटी – सी कविता की भूमिका लघु महाभारत ही हो लेती है। वह भी विषयेतर ,अप्रासंगिक औऱ असंवैधानिक।इन हँसोड़- सम्मेलनों को कवि सम्मेलन का नाम देते हुए भी कविता की मट्टी पलीद करते हुए देखकर हँसना नहीं ,रोना ही आता है।

अगले दिन अखबारों में औऱ ताज़ा का ताजा सोशल मीडिया पर तथाकथित कवि सम्मेलनों के स्तरोन्नयन पर आत्म स्तुतियाँ देखकर तो हँसी रोके नहीं रुकती।सुर्खियां बटोरने के लिए लोग क्या कुछ नहीं करते , यदि एक सच्चे साहित्यकार को भी नौटंकी के जोकर की भूमिका में जाना पड़े ,तो साहित्य की क्या गति होगी, यह सोचनीय ही होगा। हास्य के इन प्रपाती प्रतापी फब्बारों के बीच कविता के नन्हे गुब्बारे ढूँढ़े भी नहीं मिलते।ऊँचे स्तर की कविता सुनने के लिए कुछ तो खोना पड़ता है ,इसलिए आज का श्रोता अपना बहुमूल्य समय और समझदारी का बलिदान कर ही देता है। वैसे भी जीवन में हँसने- हँस पाने का सुअवसर नहीं मिलता ,तो इन सम्मेलनों में आने के बाद वह सब कमी पूरी हो लेती है।अंत में बस यही कसक शेष रह जाती है कि इस पूरे कार्यक्रम में कविता कहाँ थी?दाल में नमक का आस्वादन कराती हुई कविता जाए तो किधर जाए ,जब कवि जन ही चुटुकुलेबाज हो जाएँ।

— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’ 

*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040