धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

होली वेदों से आज तक

वैदिक युग में होली को ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ कहा गया था, क्योंकि यह वह समय होता है, जब खेतों में पका हुआ अनाज काटकर घरों में लाया जाता है। जलती होली में जौ और गेहूं की बालियां तथा चने के बूटे भूनकर प्रसाद के रूप में बांटे जाने की परंपरा आज भी थोड़ी-बहुत दिखती है । होली की अग्नि में भी बालियां होम की जाती हैं।

यह नवोन्मेष खेती और किसानी की संपन्नता का द्योतक है, जो ग्रामीण परिवेश में अभी भी विद्यमान है। इस तरह यह उत्सवधर्मिता आहार और पोषण का भी प्रतीक है, जो धरती और अन्न के सनातन मूल्यों को एकमेव करती है।

होली का सांस्कृतिक महत्व

होली का सांस्कृतिक महत्व ‘मधु’ अर्थात ‘मदन’ से भी जुड़ा है। संस्कृत और हिन्दी साहित्य में इस मदनोत्सव को वसंत ऋतु का प्रेम-आख्यान माना गया है। वसंत यानी शीत और ग्रीष्म ऋतु की संधि-वेला अर्थात एक ऋतु का प्रस्थान और दूसरे का आगमन

मधु का ऋग्वेद में खूब उल्लेख है, क्योंकि इसका अर्थ ही है संचय से जुटाई गई मिठास। मधुमक्खियां अनेक प्रकार के पुष्पों से मधु को जुटाकर एक स्थान पर संग्रह करने का काम करती हैं। जीवन में मधु-संचय के लिए यह संघर्ष जीवन को मधुमय, रसमय बनाने का काम करता है।

‘मदनोत्सव

होली पर्व को ‘मदनोत्सव’ भी कहा गया है, क्योंकि इस रात को चन्द्रमा अपने पूर्ण आकार में होता है। चन्द्रमा के इसी शीतल आलोक में भारतीय स्त्रियां अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना करती हैं। लिंग-पुराण में होली त्योहार को ‘फाल्गुनिका’ की संज्ञा देकर इसको बाल-क्रीड़ा से जोड़ा गया है।

— रेशमा त्रिपाठी

रेशमा त्रिपाठी

नाम– रेशमा त्रिपाठी जिला –प्रतापगढ़ ,उत्तर प्रदेश शिक्षा–बीएड,बीटीसी,टीईटी, हिन्दी भाषा साहित्य से जेआरएफ। रूचि– गीत ,कहानी,लेख का कार्य प्रकाशित कविताएं– राष्ट्रीय मासिक पत्रिका पत्रकार सुमन,सृजन सरिता त्रैमासिक पत्रिका,हिन्द चक्र मासिक पत्रिका, युवा गौरव समाचार पत्र, युग प्रवर्तकसमाचार पत्र, पालीवाल समाचार पत्र, अवधदूत साप्ताहिक समाचार पत्र आदि में लगातार कविताएं प्रकाशित हो रही हैं ।