कविता

जिंदगी का सफर

कभी-कभी सोच सपनों की धुंध से बाहर निकल जाती।
और जिंदगी के चेहरे पर धूप ठिठक जाती ।।
ठिठकी इस  धूप में बढ़ती उम्र की लकीरें साफ नज़र आती।
और वे लकीरें साफ-साफ जिंदगी की कहानियां कह जाती ।।
वह रास्ते जो मैं तय कर चुका हूँ ।
जिंदगी से भर कर भी कितना खाली रहा हूँ।
 कितना भागा लेकिन आज भी मैं वहीं खड़ा हूँ।
कितना खोया और कितना पाता भी रहा हूँ।
कितना सोया और कितना जागा भी रहा हूँ।
 कितना हंसा और कितना रोता रहा हूँ।
जिंदगी को कितना पिया और कितना प्यासा रहा हूँ।
 कितना भरा -पूरा और कितना अकेला रहा हूँ।
किस्मत की डोर और हाथ की सिलवटों से हर समय में जिंदगी की राह में कैसे-कैसे चला हूँ।
कभी ठिठक ….गया कभी दौड़ पड़ा सपनों के पीछे…. छोटे -बड़े सपनों में कैसे उलझा रहा हूँ।
 दिन- प्रतिदिन करवटें बदलती जिंदगी के साथ कितना कदम फूंक-फूंक के  चला हूँ।
 जिंदगी के तमाम दिनों को जिंदगी से काट -काट के मैं  हर दिन आगे बढ़ा हूँ।
 कितने आदर्श, जिम्मेदारियों के फर्ज  और कितने विचारों  -बातों के सफर करता ही रहा हूँ।
  इस बीच जिंदगी के किस मील पत्थर पर छोड़ आया खुद को ,
मैं कौन हूँ… क्या हूँ….इन बातों से बेखबर सोचता बस सोचता ही रहा हूँ।
जिंदगी के सफर में जिंदगी जो थी हमसफर कितना समझा और कितना उससे अनजान रहा हूँ।
 मैं तो समझा था कई  तहों तक वही समझी नहीं मुझे  शायद अभी तक।
 साथ चलते- चलते खामोशियों से बातें  करता रहा हूँ।
बातें चली भी तो रुकी -रुकी सी।
मैं खामोशियों में ढूंढता रहा जिंदगी के सवालों के जवाब ।
खुद से पूछता रहा उसके शब्दों में छिपे सारे गहरे राज।
पास होकर भी जिंदगी मुझसे कितनी दूर थी ।
एहसास था पर अहसास से अभी  भी दूर थी ।
कोई शिकायत भी  तो नहीं थी।
गिला सिर्फ खुद से है मेरी तमाम कोशिशें अब तक भी कितनी नाकाम रही थी।
 जिंदगी की खामोशियों से मैं इतना भागता था ।
सोचता था… और कितना जागता था।
खामोशियों को तोड़ती जब कभी जिंदगी की बातें मैं सोचता ।
इससे परे जिंदगी है ….ही नहीं  शायद बार -बार यहीं सोचता।
फिर खामोशी दबे पांव आ जाती ।
बस बात कुछ भी ना होकर सोचते-सोचते बढ़ जाती ।
रात लंबी से और लंबी हो जाती ।
मैं जागता जिंदगी किसी और ही सफर पर निकल जाती ।
यह भी जानता हूँ जिंदगी को बहुत  प्यार है मुझसे ।
मुझसे अलग तो जिंदगी भी नहीं रह सकती ।
फिर यह सोच लहरों की तरह क्यों जिंदगी के समंदर को हिला जाती।
 क्या….. मैं गलत हूँ।
क्या ….मैं सही हूँ।
इन्हीं प्रश्नों में उलझ जाता और तय नहीं कर पाता ।
कभी लगता है कि… सच है कभी सपना नजर आता।
 जिंदगी से जिंदगी का सफर कभी जिंदगी के साथ ,
तो कभी अकेले होने का एहसास दे जाता।
 सोच की इस धुंध में अपना साया भी नहीं दिख पाता।
 मैं कितना साथ- साथ रहकर भी जिंदगी से बहुत पीछे रह जाता।
आईने में देखकर अपना चेहरा पहचान नहीं पाता।
 इन लकीरों में जिंदगी के कितने निशान पाता।
 सोच में चलते-चलते मैं सपनों के एक लंबे सफर पर निकल जाता ।
जबकि बचपन, जवानी और बुढ़ापा कब कोई पकड़ पाया।
 जिंदगी का सफर इसी में उलझ कर उलझन और सुलझन का काफिला बन जाता ।
धूप की सुनहरी किरणों से बचपन का सफर स्वर्णिम हो जाता ।
 नन्ने- नन्ने कदमों से सूर्य तक जाना चाहता।
 लेकिन समय को बांध नहीं पाता ।
जवानी को संघर्ष की गर्मी से जलाता ।
सपनों की छाया में कई सपने आंखों में लिए सो जाता ।
और जब शुरू होता है हकीकत का सफर।
 जिंदगी क्या ….है ???
जिंदगी की परख का सफर।
 सपने कहीं दूर छूट जाते हैं ।
वक्त की चक्की में पिस के रह जाते हैं ।
हकीकत की धरा पर पांव रखते ही सच्चाईयों के छाले ऊभर आते हैं।
 जिंदगी सपनों में नहीं हकीकत में चलती है ।
चेहरे की सिलवटों में यह भाव साफ नज़र आते हैं ।
जिम्मेदारियों के  सवाल उभर आते हैं ।
जिंदगी खुद से परे एक नई राह पर चलती है ।
उस राह पर सपने अपने लिए  नहीं अपने अंश के अस्तित्व  में गुजर जाते हैं ।
मेहनत करते -करते … खुद को भूल जाता है ।
और यह सफर बुढ़ापे की दहलीज पर आकर जब थम जाता है।
 लकीरों से भरे चेहरे और गहरी आंखों में जिंदगी का एक लंबा सफर साफ-साफ नजर आता है।
 अपनी हार -जीत ,आशा -निराशा ,अपना -पराया ।
सच- झूठ, हंसी -खुशी, आंसू -गम, पाना -खोना ।।
जिंदगी के सफर में क्या-क्या मिला।
 सीढी-दर-सीढी  सब उन लकीरों में नज़र आता है ।
जिंदगी को बसर कर उससे दूर जाकर ,
 नाराज होकर भी जिंदगी पर सिर्फ प्यार आता है ।
उस वक्त जिंदगी का मूल्य उन गहरी आंखों में,
 अपने लिए गहरा एहसास पाता है ।
खुद को जिंदगी में आत्मा तक जुड़ा पाता है।
— प्रीति शर्मा ‘असीम’

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- aditichinu80@gmail.com