कविता

अंतर्जातीय प्रेम विवाह

भला हो अंतर्जातीय प्रेम विवाह का,
जो आज नफरत को मिटा रहा।
जाति और धर्म का,
सीमा को लांघ रहा।
न कोई जाति न कोई धर्म  है,
जो आज इससे अछूता रह गया।
सब जाति-धर्म आज सब में है मिल रहा,
ऊंँच और नीच का है झंझट मिट रहा।
मैं सराहता हूंँ उन जोड़ियों को,
जो ये नेक काम कर रहा।
इस पुनीत कार्य से वो,
युगों से आ रही भेदभाव मिटा रहा।
जो लग रहा था कल तक अभेद्य,
आज उसको है भेदा जा रहा।
भला हो अंतर्जातीय प्रेम विवाह का,
जो आज नफरत को मिटा रहा।
क्या ब्राह्मण क्या क्षत्रिय,
क्या वैश्य क्या शुद्र बन रहा।
सबमें हुआ अंतर्जातीय विवाह,
कोई भी नहीं है इससे बाकी रह गया।
मूर्खता होगा किसी को भी,
जो तुम अछूत कह रहा।
बहुत बड़ा है मानवतावादी वो,
जो है प्रेम का अर्थ समझ रहा।
महान है वो लोग जो आज,
अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा दे रहा।
आज रूढ़िवादी पुरातनपन्थ का,
है देखो कैसे अंत हो रहा।
कौन किस जाति और मजहब का रह गया,
मुश्किल होगा कहना वो दिन आ रहा।
मानव हैं हम मानव हमारी जाति,
और मानवता ही केवल धर्म रह जायेगा।
सब बकवास मिट जायेगा,
आज सब एक हो रहा।
भला हो अंतर्जातीय प्रेम विवाह का,
जो आज नफरत को मिटा रहा।
— अमरेन्द्र

अमरेन्द्र कुमार

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