सामाजिक

यादों का आँगन

यादों का आंगन
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मेरे बचपन का घर आंगन रह रह के मुझे याद आता है | जी चाहता है बांध लाना वहां से मेरा प्यारा सुखद सलोना बचपन वह एहसासों की पोटली वह यादों की धरोहर वह थाती |
वह ईंटो से बना आंगन जिस पर अम्मा कभी-कभी मिट्टी और गोबर का लेप करके दो ईंटो के बीच की दरारों को भर दिया करती थी |
उस आंगन में अठखेलियां करती सूरज की किरणों का उजियारा, वह तुलसी का चौरा और वहीं पास में टीन पर फैली सेम की बेल जिस पर कभी आकर बैठा करते थे प्यारे – प्यारे तोते उन पलों को बांध लाना चाहता है
उन यादों की अनमोल धरोहर को लौटा लाना चाहता है मन |

आँगन में वह खूब लंबा आम का पेड़, जिस पर मीठे आम फला करते थे | वह लाल खपरैल जिस पर चढ़कर तोड़ा करते थे बांस से मीठे आम | उसकी वह मिठास फिर चखना चाहता हैं ,बटोर लाना चाहता है जी लेना चाहता हैं उस अहसास को मन |

आंगन में वह पानी का छिड़काव करना जिससे उठती थी माटी की सोंधी सुगंध |
महकती रातरानी के संग आंगन में बिछी चारपाईयों की कतार जिस पर लेट – बैठ कर गुनगुनाते थे गीत |
देखते थे आकाश में झिलमिल तारों को |
वह ममता से परिपूर्ण आंगन जहां चंदा की धवल चांदनी बिखर कर आंगन को बना देती थी दूधिया, बटोर लाना चाहती हूं उस ज्योत्सना को , उस धवल चंद्रिका को मन की डलिया में अपने साथ और बिखराना चाहती हूं हर घर,हर गली में |

वह घर के पिछवाड़े में लगे पेड़ों पर चढ़ना वह बेफिक्रियाँ, नादानियां, अटखेलियां और मस्ती जो आज भी छिपी होंगी उस पूरे वांगमय में कहीं न कहीं ढूंढ लाना चाहती हूं वह सब,लौटा लाना चाहती हूं वह समय का सच्चा पन |

वह बारिश की बूंदे जो तन और मन दोनों को भिगाती थी, वह बारिश का पानी जिसमे हम बच्चे कागज की नाव तैराते थे |
वो मेरे आँगन की गौरैया जिसके संग हम भी फुदकते थे | वह कोयल की कुहुकन जिसके संग हम भी कुहूकते थे |
वह कागज की नावें जो हमने कभी तैराई थीं आज भी शायद किनारे पर लगी हो, उन्हें पुनः तैराना चाहती हूं |

वह गौरैया की फुदकन, पंछियों की चहकन, भंवरों का गुंजन,वो अटखेलियां, शैतानियाँ , बेफिक्रियां, नादानियां और मस्तियाँ भर लाना चाहती हूं अपनी झोली में |
वह गिलहरी की तरह दौड़ना भागना वह तितलियों का पकड़ना और टिम – टिम करते जुगनू जिनको कभी दुपट्टे,कभी बोतल में सहजता से रखती थी | जुगनू की वह टिमटिमाहट आकाश में फैलाना चाहता है मन |

वह प्रेम से गुंधे आटे की रोटी, प्रेम पगा भोजन एक साथ मिल बैठ कर खाना , जिसमें बल था स्वास्थ्य व सुख था वापस लाना चाहती हूं आज के परिवेश में |

वह कच्चे दूध में घिसे गए कच्चे कोयले से बना रंग और गेरू से बनी अल्पनाएं, रंगोली और गमलों का सजाना सब याद आता है |

वह प्रातः पंछियों की चहचहाहट, भ्रमरों का गुंजन, तेज हवा में पीपल के पत्तों की छन-छन सब तिरते हैं स्वप्न की आकाशगंगा में |
संध्या होते ही पक्षियों का क्रमबद्ध कतारों से वापस घर को लौटना और मेरा खुश होकर उन्हें तकना सब याद आता है |
मासूम,सुखद सलोना प्यारा बचपन जो अब इन कंक्रीट के घने जंगलों में न जाने कहां खो गया है |
लौटा लाना चाहती हूं वह सब |
अब न वो महकी पुरवाई है न पक्षियों की चहचहाहट जुगनू तो विलुप्त ही हो गए हैं,अब अंधियारे में उनका जलना बुझना नहीं दिखाई देता है | वह प्यारी टिमटिमाहट खो गयी है आज |

जी चाहता है लौट जाऊं उस बचपन के आंगन में जहां मन महकता था तन स्फूर्ति से भर जाता था | बारिश में तन मन भीगता था | जुगनू भी अपने झुण्ड के साथ जलते बुझते दिखाई देते थे | जी चाहता हैं जाऊं और बांध लाऊं उन तमाम सुधियों के ताने-बाने को और बिखरा दूँ थोड़ा-थोड़ा हर घर के आंगन में गलियारे में | बिखेर दूँ कुछ जुगनू वातायन में इधर उधर वह माटी की सौंधी गंध लौटा लाऊँ वह बचपन जो कहीं खो गया है |
जिससे
चहक उठे,महक उठे वह सुधियों का संसार |
हो खुशियों का विस्तार, प्यार- दुलार,ममत्व और अपनत्व से दशों दिशाएं भर जाएं |
मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016