सामाजिक

मर्दजात की ज़ुबाँ से रपटे कुछ एहसास

सुनो..!दुनिया वालों मुझे खुद को टटोलना है..! लगता है मुझमें बहुत बड़ी खोट है, या तो मैं तारीफ़ के काबिल नहीं, या मेरे त्याग का कोई मोल नहीं। साहित्य के इतिहास में नारी की गाथाएँ हर दूसरे पन्ने पर विद्यमान है, मेरे कर्तव्य का, मेरे त्याग का हर अंश क्यूँ गायब है? क्या मैं समुन्दर से भी गहरा हूँ? क्या मैं पर्वत से भी ऊँचा हूँ? क्या मैं धरती का पर्याय हूँ? क्यूँ जिम्मेदारियों का सरमाया एक अकेले की रीढ़ पर लाद दिया गया है? मेरे भीतर सैंकडों भावों का सैलाब बह रहा है, आज मुझे भीतर से खाली होना है।
मुझे निष्कासित करना है खुद को। किसने करार दे दिया मुझे बलिष्ट? ख़ारिज कर दो! इस विराट उपनाम से एतराज़ है मुझे। मेरी आँखें सूखा कुआँ नहीं, अश्कों के सराबोर आबशार पलकों के बाँध के पीछे सहजकर रखे है। दर्द जब हद से ज़्यादा बढ़ जाता है तब रोना चाहता हूँ, खुलकर किसीके कँधे का मैं भी सहारा चाहता हूँ। मुखर होते रोऊँ तो कमज़ोर करार देते हिजड़ों की श्रेणी में बिठा दिया जाता हूँ। मैं चट्टान नहीं, असंख्य दंशों से घायल हूँ! मैं बहादुर भी नहीं, चुनौतियों के बिहड़ जंगलों में खोते डर जाता हूँ।
जब दो सिरों को जोड़ने में नाकामयाब हो जाता हूँ तब, टूट जाता हूँ ऐसा महसूस होता है जैसे परिवार वालों की नज़रों में निठल्ला और नाकारा हूँ।
ऐसी स्थिति में कभी-कभी खुदकुशी की राह पर नज़रें गड़ाए बैठ जाता हूँ।
अश्कों की नमी को सोखता गिलाफ़ मेरा भी गीला होता है, शिकायत मुझे भी करनी होती है, ज़िद्दी बनकर मुझे भी सब हासिल करना होता है, कुछ बंदीशों का विद्रोह मुझे भी करना होता है, सपनें मेरे भी खंडित होते है, शोपिंग मुझे भी करनी है, सैर पर मुझे भी निकलना है लेकिन…अपनी जेब की हैसियत सिवाय मेरे कहाँ कोई जानता है?
तभी तो रवायतों ने पुरुष को इन झंखनाओं से वंचित रखा है।
ये सब मुझे शोभा नहीं देता मुझे तो बस सबको देते जाना है। हैसियत से बढ़कर कमाना है उस डर के मारे कि कहीं निठल्ला न कहलाऊँ।
मैं सज्जन हूँ… औरतों का सम्मान और माँ-बाप की इज्जत करता हूँ पर…महिलाओं से बात करने में झिझकता हूँ, कहीं मुझे लंपट न समझ लिया जाए, कहीं मुझे वहशि न समझ लिया जाए। अपनी शख़्सियत का प्रमाण देना संभव नहीं कभी-कभी चिल्लाते हुए सरेआम ये सबकुछ बयाँ करना चाहता हूँ, पर नामर्द न समझ ले दुनिया इस डर से हर मलाल पी जाता हूँ।
जब माँ और पत्नी के द्वंद्व युद्ध में चटनी सा पिसता हूँ तब सहनशक्ति का पर्याय लगता हूँ। पिता की उम्मीदों पर खरा न उतरने पर लज्जित भी होता हूँ। स्त्री हक में सारे कानून मेरी सबसे बड़ी हार है। उसी कानून का नाजायज़ फ़ायदा उठाने वाली औरतों के हाथों मात खाते; निर्दोष होते हुए भी बलि चढ़ जाता हूँ, तब लगता है मैं बलिष्ट होकर भी विवश हूँ।
खाली जेब लिए दोस्तों के साथ कटिंग चाय पीने में सच्ची घबराता हूँ। पढ़ाई कितनी भी करूँ नतीजा निकलने वाले दिन पसीजते अंडरग्राउंड हो जाता हूँ।
कहो कितने राज़ गिनवाऊँ?
माँ कसम! कभी-कभी मन करता है समेट लूँ खुद को और किसी निर्जन द्विप पर अपना एकल घोंसला बनाऊँ। न मुझे कोई रोता हुआ देखे, न कमज़ोर होता हुआ महसूस करे, न मुझसे कोई उम्मीद रखें, न कोल्हू का बैल समझे। जो हूँ जैसा हूँ खुद को स्वीकार हूँ, क्यूँ दुनिया की नज़रों में शक्तिमान बनूँ? क्यूँ जैसा नहीं वैसा दिखने का ढोंग करूँ? मैं भी थकता हूँ, हारता हूँ, डरता हूँ और टूटकर बिखरता हूँ।
पर.. मुझे इजाज़त नहीं अपनी कमज़ोरियों को विमर्श की तुला पर तोलने की, मर्द नाम का प्राणी जो हूँ। सबकुछ सहते हुए बिन मंज़िल के रास्तों पर रेस के घोड़े की तरह दौड़ते जाना है, बस दौड़ते जाना है। मेरी व्यथा का मैं अकेला वारिस हूँ। क्योंकि मैं मर्द हूँ।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर