कविता

धूप जैसे ही निकली

धूप जैसे ही निकली पर फैलाने लगी, सर्द हवाएं बहनें लगी खुलने लगी खिड़कियां मकानों की। लोग बाहर टहलने लगे घूमने लगे अच्छा लगने लगा मौसम करने लगे बातें सभी अनेक प्रकार की आज की कल की पल – पल की नई – पुरानी कण – कण की प्रसन्नता जगाए चेहरों पर। अशोक बाबू माहौर

कविता पद्य साहित्य

चलने की कोशिश कर रहा हूँ

विशाल अंधकार में चलने की कोशिश कर रहा हूँ पथ ऊबड़ – खाबड़ काँटे अनेक घास सूखी – सर्री फैली कोसों दूर तक कोई नहीं न खुद का पता डर भी बेखौफ चल रहा साथ मेरे चुपके जैसे मुझे कुछ पता नहीं। पैरों की आहट बारम्बार सता रही चिढ़ा रही शायद इस वक्त बना हूँ […]

कविता पद्य साहित्य

अभी – अभी निकली है

अभी अभी स्नानकर निकली है मधुभाषी चिड़िया। रेत पर बैठी सेक रही है पर अपने धूप में, उतावली सी हो रही है उड़ने, करना चाहती है सैर नील गगन की। डाली – डाली पर मस्तमौला सी चहकना चाहती है गाना चाहती है गीत नये – पुराने जमाना चाहती है महफिल अपनी भी वीराने में ताकि […]

कविता

सुबह खिली धूप

सुबह खिली धूप चिड़ियाँ चहकी महका उपवन लहराती घास मन मोहक मौसम। खुशनुमा लोग करते बातें अपनी परायी। घर- घर बनते पकवान जैसे आया त्योहार खुशी अपार, बच्चे खेलते मस्तमौला से अलौकिक दृश्य गुनगुनाये मन घूमे तन। अशोक बाबू माहौर

कविता

हे! नववर्ष

हे! नववर्ष क्या साथ लाए हो अपने? ढ़ेरों खुशियाँ उपहार, उमंग, अच्छाइयाँ, गर नहीं तो मैं नहीं कहूँगा नववर्ष न ही करुँगा स्वागत बेवजह ही मैं बस पढ़ता रहूँगा पुराने वर्ष की अथक कथाएँ कई महीनों तक आज की कल की पल पल की| अशोक बाबू माहौर

कविता

मुझे विश्वास है

मुझे पूरा विश्वास है उस मकान के पीछे आज भी जिंदा होगा नन्हा पौधा जो रोपा था कल परसों मैंने| भले ही धूल मिट्टी में सन गया हो या मलवे में दब गया हो, लाचार सा बिखर गया हो पर उम्मीदें आज भी खरी खरी उड़ान भरती हैं हौसले सजाती हैं क्योंकि वह अपने आप […]

कविता

ढली हुयी शाम

ढली हुयी शाम उतर आयी फिर से, ड़रने लगे बच्चे मगर चाँद ने साहस दिलाया. हथेली पर चाँदनी जगमगाती रोशन करती मन अथक से बच्चे खेलते आँगन में जैसे सुबह हुयी है अभी अभी. मंद समीर स्पर्श करती तन प्रसन्न हो थिरकती साथ शाम गुस्साई सी दूर खड़ी निहारती उफ! मुँह बनाए दुबला पतला सा […]

कविता

आओ मिलकर बात करें

आओ मिलकर बात करें देश अपने भारत की शान की, संघर्ष की, वीरों के वलिदान की| नदियों की कल कल ध्वनि जुगनू का संसार यहाँ चहक पहल घर घर में स्नेह भावना जगती मन में पूजा पाठ नित्य यहाँ ईश्वर का गुणगान यहाँ| वीरों की गाथा होती भजन कीर्तन खूब यहाँ कोयल की कूक मतवाले […]

कविता

शहर की गलियाँ तंग

ये शहर की गलियाँ तंग तानाबाना बुनती भीड़ से भरी कुछ कहना चाहतीं हमसे, पर क्या हम सुनते हैं? लगाते हैं अनुमान| गलियाँ भी सहती हैं बोझ दुख सा सुबह शाम चीखें, चिल्लाहट हजारों कदमों की आहट अनाप सनाप बोलियाँ और कितनों की ही दास्ताँ बिगडी़ सुधरी चाल भूचाल सी यूँहीं|

कविता

मैं आम इंसान हूँ

मैं आम इंसान हूँ सादा जिंदगी, दो वक्त की रोटी जुटा पाता हूँ दिहाड़ी मजदूरी करता हूँ परेशानियों से बोलवाला है दिन में संघर्ष, रात में आह भरता हूँ| साहब, सारे कामकाज ठप्प हो गये मैं कहाँ जाऊँगा? किस मोड़ पर भीख माँगूँगा पैर पकडूँगा | शायद मेरे घर का चूल्हा अब नहीं जलेगा माँ […]