कविता

शहर की गलियाँ तंग

ये शहर की गलियाँ तंग तानाबाना बुनती भीड़ से भरी कुछ कहना चाहतीं हमसे, पर क्या हम सुनते हैं? लगाते हैं अनुमान| गलियाँ भी सहती हैं बोझ दुख सा सुबह शाम चीखें, चिल्लाहट हजारों कदमों की आहट अनाप सनाप बोलियाँ और कितनों की ही दास्ताँ बिगडी़ सुधरी चाल भूचाल सी यूँहीं|

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मैं आम इंसान हूँ

मैं आम इंसान हूँ सादा जिंदगी, दो वक्त की रोटी जुटा पाता हूँ दिहाड़ी मजदूरी करता हूँ परेशानियों से बोलवाला है दिन में संघर्ष, रात में आह भरता हूँ| साहब, सारे कामकाज ठप्प हो गये मैं कहाँ जाऊँगा? किस मोड़ पर भीख माँगूँगा पैर पकडूँगा | शायद मेरे घर का चूल्हा अब नहीं जलेगा माँ […]

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गलियों में उड़ रहे

गलियों में उड़ रहे रंग हरे गुलाबी सराबोर नर नारी बच्चे रंग बिरंगे हुड़दंग ही हुड़दंग | कोई रंग भरे पिचकारी कोई करे ठाठ ठिठोली बूढ़े काका भी मले गुलाल जताते प्यार | अच्छा लगता फागुन महीना मिलजुल कर बातें करना हँसना खिलखिलाना गाना गुनगुनाना मस्तमौला हो ठहाके लगाना |

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मेरा मक्खन चट गया

उठाकर नजर देखता रहा मैं मक्खन चट गया, उल्टी पड़ी मटकी उदास सी आज फिर आँगन में | आकर अम्मा बोली- तेरा मक्खन चट गया सुबह सुबह जाने क्यों ? रोता बच्चा मेरा पोंछे आँसू धीरे धीरे तोतली आवाज में बतलाए – पापा मक्खन चट गया मैं भूखा हूँ कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? मुझे मक्खन […]

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थक हार गया हूँ

थक गया हूँ हार गया हूँ संघर्ष करते करते अपने आप से दुनिया से केवल अपने हक के लिए क्या हक मुझे मिल पायेगा? पता नहीं जवाब नहीं देती मेरी अपनी देह और मैं ढ़ेर सा महसूस करता हूँ आँगन में उफ़! हारी थकी साँसें गिनकर | अशोक बाबू माहौर

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मैं क्या करूँ

मैं क्या करुँ? कहाँ जाऊँ? कहाँ नहीं? पता नहीं चलता अब क्या करुँ? काम काज ठप्प पडे हैं मन दुखी है परेशान है घर का चूल्हा तक नहीं जला भूखे हैं पेट करुँ भी क्या? भगवान रुठ गए रुठ गयी मेरी अपनी किस्मत अब बस रोना है रोकर जीना है जो होना है सो होना […]

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बडा घर

बड़ा घर परिवार बड़ा बडे़ लोग मोटी मोटी तोंद हँसते रहते बेवजह यूँहीं जैसे चमकते रहते भाग्य इनके हरदम. दान करते खिलाते खूब खाना भूखे जीवों को और आनंदमय हो जाते पल पल खूब, बहुत खूब.

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चलो कोरोना को हराते हैं

चलो, आज कोरोना को हराते हैं उठाते हैं कुछ मजबूरियाँ बंद हो जाते हैं कमरों में कुछ दिनों तक ताकि तोड़ सकें श्रंखला कोरोना की और हरा सकें उसे, भगा सकें अपने देश से शहर से अपने आप से हो सकें हम विजयी लहरा सकें परचम अपना दुनिया में!

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पर हम पागल है

हम खेलते मिट्टी में और उछालते कूड़ा ये न समझो शरारत है पर हम पागल है! कभी नाचते सड़क पर और दौड़ते कीचड़ में ये न समझो आदत है पर हम पागल है! कभी घूमते काँटों पर खाना खाते कचरे का ये न समझो लालच है पर हम पागल है! आप मुझे समझाते डंडा खूब […]