कविता

शब्द बनकर रह गए हैं

मिटटी के चूल्हे  पर  हांड़ी चढ़ाना लकड़ी की आग पर  खाना पकाना  धुएँ से  माँ की आँखों से  आँसुओं का गिरना  खीजना,चिल्लाना, किताबों में  कहानियाँ बनकर, लोगों की जुबान पर  शब्द बनकर रह गए हैं  I  फुलवारियों में  तितलियों का आना- जाना  कोयल का कूकना रात में  जुगनू का चमकना  अट्टाहास यूँहीं  फिसल कर गिरना  […]

कविता

कविता : कैसे लाँघोगी

बंद खिड़कियाँ,दरवाजे परदे नींद में ऊंगते दीवाल पर टिकी मूर्ति तुम्हारी कैसे लाँघोगी देहरी दुर्गम राहें कठिनता हरदम चारों ओर तबाही मचाती बौखलातीं नजरें लोगों की तपी हुई अंगीठी में I धुँआ अंधाधुंध परछाई कहाँ,कैसे ? खोज पाओगी अपनी निर्मल I औरत चर्चाएँ तुम्हारी अनेकों पुराणों में ढूढों जरा सोचो बलशाली बनो अतीत बदल डालो […]

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कविता : स्त्री तू निर्बल क्यों ?

स्त्री तू निर्बल क्यों ? क्यों जज्वा तेरा ? शून्य सा खामोश बिखरा-बिखरा मैदानों में I तेरी हथेली पर वही लकीरें खिचीं हुई संघर्ष,अटल विश्वास कीं अन्यथा कहाँ दाना पानी नसीब में I ऊर्जा,उमस सुख  दुःख बिद्यमान सारे तुझमें उठ पाँव रख, देख अंत: दीवारों में जगमगा उठेंगीं खुशियाँ अनेकों होती प्रफुल्लित मस्तमौला सी I