व्यंग्य – गोबराहारी गुबरैला जी
‘गोबर’ एक सार्वभौमिक और सार्वजनीन संज्ञा शब्द है।साहित्य के मैदान में इसने भी बड़े -बड़े झंडे गाड़े हैं।हिंदी साहित्य के
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Read Moreखिड़की खुलतीजब अतीत कीबासी हवा महकने लगती। कंचा-गोलीआँख मिचौलीकागज की वह नाव चली।ग्रामोफोनरेडियो बजतेयहाँ वहाँ पर गली- गली।। ऊँची कूदकब्बड्डी
Read Moreरीझ गया है कोकिल का मन।देख लिया कुसुमाकर – दर्पन।। कुहू – कुहू की टेर लगाती।विरहिन के उर पीर जगाती।।बहती
Read Moreबंदर जैसे स्वाद, अदरक का जाने नहीं।ज्ञान न उसको नाद , जो बहरा है कान से।।रखे घूमता नित्य, ज्ञान –
Read Moreढपोरशंख की खोज बहुत पहले हो गई थी। इसलिए आज उसके इतिहास में जाने की आवश्यकता नहीं है।इतना अवश्य है
Read Moreपीली – पीली सरसों फूलीनाच रहे हैं खेत। फूल बसंती महक रहे हैंलगा रही पिक टेर।कब आओगे मोहन प्यारेकरो न
Read Moreसुदृढ़ता का नाम किला है।जगती पर वह हमें मिला है।। कभी मोम – सी कोमलता भी,तूफानों में नहीं हिला है।
Read Moreछाछ बिलोती मेरी अम्मा।करे मथानी धम्मक – धम्मा।। सूरज ने निज आँखें खोली।कुक्कड़ कूँ की सुनते बोली।।गूँज उठी ध्वनि रुनझुन
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