कविता : तुहिन के तीर बिफर
तुहिन* के तीर बिफर, धरा पर जाते बिखर; भूमि तल जाता निखर, प्राण मन होते भास्वर ! पुष्प वत आते
Read Moreतुहिन* के तीर बिफर, धरा पर जाते बिखर; भूमि तल जाता निखर, प्राण मन होते भास्वर ! पुष्प वत आते
Read Moreतरंगों में फिरा सिहरा, तैरता जो रहा विहरा; विश्व में पैठ कर गहरा, पार आ देता वह पहरा ! परस्पर
Read Moreबुद्धि से मुक्ति मिले बिन, बोध से युक्ति मिले बिन; ज्ञान में गुमता गहमता, उन्मना मन कर्म करता ! समझ
Read Moreअपनों से भरी दुनियाँ, मगर अपना यहाँ कोंन; सपनों में सभी फिरते, समझ हर किसी को गौण ! कितने रहे
Read Moreमत जाओ दूर मेरे सखा, निकट मम रहो; कुछ मन की कहो, हिय की सुनो, चाहते रहो ! आत्मा में
Read Moreसुरों से है मेरा नाता, कोई मुझमें है गा जाता; कभी मैं जान ना पाता, कोई पर उसे सुन जाता
Read Moreउलझना कहाँ वे चहते, अधिक संसार के रिश्ते; बीज जब दग्ध हो जाते, उगा अंकुर कहाँ पाते ! देख
Read Moreसरोजों का उभरना भी, सूर्य के ओज से होता; सरोवर का हृदय मंथन, उसे उद्गार से भरता ! समाधित जल
Read Moreरहा गन्तव्य सबका एक, प्रश्न करते अनेकानेक; बहे बूँदों सरिस धारा, रहे फिर भी मनोहारा ! समय की धार सब
Read Moreतरोताज़ा सुघड़ साजा, सफ़र नित ज़िन्दगी होगा; जगत ना कभी गत होगा, बदलता रूप बस होगा ! जीव नव
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