मोहन कूँ देखन कूँ
मोहन कूँ देखन कूँ, तरसि जातु मनुआँ; देखन जसुमति न देत, गोद रखति गहिया ! दूर रखन कबहुँ चहति, प्रीति
Read Moreमोहन कूँ देखन कूँ, तरसि जातु मनुआँ; देखन जसुमति न देत, गोद रखति गहिया ! दूर रखन कबहुँ चहति, प्रीति
Read Moreकिलकावत काल पुरुष, धरती पै लावत; रोवन फिरि क्यों लागत, जीव भाव पावत ! संचर चलि जब धावत, ब्राह्मी मन
Read Moreवारौ सौ न्यारौ सौ, ब्रज कौ कन्हैया; प्यारौ दुलरायौ सौ, लागत गलबहियाँ ! भेद भाव कछु ना मन, चित्त प्रमित
Read Moreकिलकि चहकि खिलत जात, हर डालन कलिका; बागन में फागुन में, पुलक देत कहका ! केका कूँ टेरि चलत, कलरव
Read Moreप्राण परिहरि त्राण वर कर, आत्म हो स्वच्छन्द जाती; लिप्ति की भित्ति विहा कर, मुक्ति का आनन्द लेती ! तख़्त
Read Moreत्याग कर तृण वत स्वदेही, आत्म हो जाती विदेही; यन्त्र वत उड़ कर सनेही, दूर से तकती विमोही ! लौट
Read Moreहर हाल में गुज़रते रहे, कारवाँ यहाँ; मायूस मन हुए भी हो क्यों, माज़रा है क्या ! तारे सितारे
Read Moreआए कहाँ हैं आफ़ताब, रोशनी लिए; रूहों की कोशिका के दिये, झिलमिले किए ! मेघों की मंजु माला, अभी
Read More‘हँ-सो’ की गंगा में बह कर, हँसों के उर ध्यान किए; आते जाते भाव सिंधु में, स्वर सरिता में मिल
Read Moreभूरे भुवन में छाए हुए, मेघ मधु हुए; जैसे वे धरित्री ही हुए, क्षितिज को लिए ! दिखती धरा कहाँ
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