सामाजिक

समाज और हमारी व्यवस्था

प्लेटो ने कहा था, कि हम अंधेरे से डरने वाले बच्चे को आसानी से माफ कर सकते हैं; जीवन की असली त्रासदी तब है, जब लोग प्रकाश से डरते हैं। आज कुछ स्थिति ऐसी ही दिख रहीं। जब हम बात लोकतांत्रिक व्यवस्था के सांचे में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य और भारतीय अवाम की करते हैं। तो […]

राजनीति

सियासतदानों की कथनी और करनी में फ़र्क़ क्यों?

आज के दौर में राजनीति के रणबाँकुरे साम, दाम, दंड और भेद सभी का उपयोग सत्ता प्राप्त करने के लिए करते हैं। सत्ताशीर्ष पर बनें रहना ही जब राजनीतिक दलों का पहला और अंतिम धेध्य बन जाएं। फ़िर राजनीतिक शुचिता और सामाजिक समानता आदि की बातें भोथरी साबित होने लगती हैं। हम बात यहां पर […]

राजनीति

लेख– सरदार पटेल राष्ट्र निर्माण के शिल्पी

आज के दौर में राजनीति के रणबाँकुरे साम, दाम, दंड और भेद सभी का उपयोग करने लगें हैं। सत्ताशीर्ष पर बनें रहना ही जब राजनीतिक दलों का पहला और अंतिम धेध्य बन जाएं। फ़िर राजनीतिक शुचिता और सामाजिक समानता आदि की बातें भोथरी साबित होने लगती हैं। हम बात यहां पर सरदार पटेल जी की […]

राजनीति

अवाम और सियासतदां दोनों समझें अपनी जिम्मेदारियां!

कहे कबीरा निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय। आज के परिवेश से यह उक्ति मेल नहीं खाती। फ़िर वह बात किसी भी स्तर से की जाएं। वह बात सामाजिक जीवन की हो, या राजनीतिक गलियारों की। अब स्थिति ऐसी निर्मित होती जा रहीं, कि जो दल अवाम के […]

राजनीति

लेख– युवाओं के मुद्दे हो चुनावी चौपाल का हिस्सा

कहाँ तो तय था चरागां हर घर के लिए, यहां रोशनी मयस्सर नहीं है शहर भर के लिए। यह उक्ति आज के दौर में एकदम सटीक बैठती है, क्योंकि बेरोजगारी का आलम जो देश-समाज में बद्दस्तूर बढ़ता जा रहा। 2014 के आम चुनाव में जब देश के केंद्रीय सत्ता में नई सरकार काबिज़ हुई थी। […]

राजनीति

लेख– मूलभूत सुविधाएं पहुँचनी चाहिए अंतिम व्यक्ति तक!

कहे कबीरा निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय। आज के परिवेश से यह उक्ति मेल नहीं खाती। फ़िर वह बात किसी भी स्तर से की जाएं। वह बात सामाजिक जीवन की हो, या राजनीतिक गलियारों की। अब स्थिति ऐसी निर्मित होती जा रहीं, कि जो दल अवाम के […]

सामाजिक

आलेख– हिंसा और सेक्स परोसने के चक्कर में सिनेमा से दूर हो रहा सामाजिक पक्ष

प्रौद्योगिकी के आविष्कार और नवाचारों ने मानव समाज के संचार और संवाद में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। ऐसे में जिस संवाद को सहज, सरल और सुलभ होना चाहिए था, वह विकृत, अप्रासंगिक और पेचीदा होता जा रहा। बात चाहें सिनेमा की ही क्यों न हो। आज वह व्यवसायिकता की गिरफ्त में उलझती जा रहीं। […]

राजनीति

लेख– जनसरोकारों पर बात हो सिर्फ़ सियासतदानों की तरफ़ से!

देश की रीढ़ कृषि और भविष्य निर्माण करने वाली शिक्षा व्यवस्था दोनों की स्थिति नाजुक है। एक तरफ देश का किसान बेबश और लाचार हैं, तो दूसरी ओर शिक्षा व्यवस्था का भी बेडा गर्त है। ऐसे में देश तरक्की की तरफ़ कैसे राजनीति की पाठशाला के मुताबिक बढ़ रहा, यह समझ से बाहर है। देश […]

सामाजिक

आलेख– गांधी का जीवन-दर्शन, हम और हमारी व्यवस्था

डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के मुताबिक दर्शन का उद्देश्य जीवन की व्याख्या करना नहीं, जीवन को बदलना है। ऐसे में अगर हम बात राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की करते हैं, तो उनके जीवन सिद्धान्त अपने-आप में कदापि दर्शन से कमतर नहीं है। जिस पद्धति पर अगर आज मानव समाज चलें। तो वह अनगिनत दुश्वारियों और समस्याओं से […]

सामाजिक

आलेख– सुरक्षा कवच बचाव का ढाल बनें, बदलें का अस्त्र नहीं!

स्वामी विवेकानंद ने अपने वक्तव्य में कहा है, कि हिन्दू समाज में से एक मुस्लिम या ईसाई बने, इसका मतलब यह नहीं कि एक हिन्दू कम हुआ बल्कि इसका मतलब हिन्दू समाज का एक दुश्मन और बढा । यह प्रवृत्ति हमारे समाज में तेजी से बढ़ रही। तो ऐसा लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था के नाक के […]