कान पाते रहे कब से लेकिन उसकी किलकारी नहीं गूंजी खिलखिलाई नहीं कुछ तुतलाती सी आवाज कानो तक पहुंची “मम्म…मम्म “ अस्पष्ट ही लगे शब्द मगर यकीनन आवाज़ का प्रस्फुटन माँ शब्द से ही हुआ होगा...
आखिरी बारिश तक भींगती रही तुम मैं चुपचाप रहा अँधेरे की ओट में गीले ख़त उठाये थे मगर लफ्ज बिखरे थे इस कदर एक “इकरार” को जोड़ने में जमाना गुज़र गया -प्रशांत विप्लवी-
एक कुर्की में जप्त कुछ माल-असबाब गिरफ्त में ठिठुरते कई देह उन्हें देखने जुटी – एक भीड़ जुर्म ..ठीक-ठीक तय नहीं मगर असबाब का लिस्ट तैयार है बर्तन जूठे बर्तन टूटे बर्तन सूने बर्तन नहीं है...
उसने पहले दिन ही बता दिया था अपनी सौतेली माँ को कि ये शादी बाप ने ऐय्याशी के लिए की है, उनके बच्चे पूर्णतः बालिग़ हैं और अपना ख्याल रख सकते हैं। धनेसर वाकई सठिया गया...
मेरी कुछ पुरानी किताबें सन्दर्भ विहीन निर्वासित हो चुके हैं .. उन्हें कभी नहीं झांकना है , कहकर मोटे गत्तों के डब्बे में डाला था मगर इनके पैर निकल आते हैं बाहर अँधेरी कोठरी के फर्श...
मिस्ड कॉल पड़ी स्मृति के किसी कोने जिनमें दर्ज हो सकती है किसी की शरारत किसी की भूल किसी की ज़रूरत किसी की आदत किसी की विपन्नता मिस्ड कॉल असंख्य बार उभर आते हैं मोबाइल स्क्रीन...
कुंवारी लडकियाँ … गिनती है पिता के माथे की शिकन और फिर गिनती है अपनी उम्र हाथ के उँगलियों में कई बार हर बार चूक समझकर दुहराने लगती है अपनी ही गिनती माँ से पूछती है...
अनिच्छा से सृजित गर्भ में पनपा कोई भ्रूण महज़ एक रक्त का लोथरा रहा होगा जब प्रमाणित कर कुछ पैसों से अजश्र रक्त-श्राव कराकर उसकी बेचैन आँखों में झाँक कर बोला गया होगा सॉरी माँ बहा...
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