“मुक्तक”
अंग रंग प्रत्यंग कलेवर, शरद ऋतु भरे ढंग फुलेवर। सुनर वदन प्रिय पाँव महेवर, इत चितवत उत चली छरेहर।
Read Moreदुनियाभर में बहुत हैं, ऐसे जहाँपनाह। उल्लू की होती जिन्हें, कदम-कदम पर चाह।। — उल्लू का होता जहाँ, शासन पर
Read Moreअंतर्मन में घुल गया,विष बनकर आघात ! सुबहें गहरी हो गयीं,घायल है हर रात !! धुंआ हो गयी ज़िन्दगी,हुई ख़त्म
Read Moreजीवन मुरझाने लगा, ऐसी चली बयार ! स्वारथ मुस्काने लगा, हुआ मोथरा प्यार !! बिकता है अब प्यार नित, बनकर के सामान !
Read Moreदशरथ पिता नहीं रहे, कहां मिलेंगे राम। रिश्ते भी अब नेट पर, ढूढ़े मिले तमाम।1। पढना लाल भूल गये,
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