सामयिक ग़ज़ल
जीवन घर तक ,पर सुखकर है । कितना प्यारा लगता दर है । अब विराम में भी गति लगती, हर्ष
Read Moreजीवन घर तक ,पर सुखकर है । कितना प्यारा लगता दर है । अब विराम में भी गति लगती, हर्ष
Read Moreद्वार तुम्हारे आया हूँ प्रिय, जीवन में दुत्कार बहुत है। जीवन का मधु हर्ष बनो तुम, जीवन का नव वर्ष
Read Moreअब कोरोना का रोना है, बद नफरत का भी दंगा है। आदमी आदमी की खातिर, हो गया आज बदरंगा है।।
Read Moreआँखों में दिखता नहीं, बिल्कुल पानी मित्र। जान-बूझकर है बना, मनु अज्ञानी मित्र। गोरखधंधे अब करें, होकर के निर्भीक। छीना-झपटी
Read Moreमेरी हमेशा कोशिश रहती है कि मैं वृक्ष सा बनूं। क्यों कि वृक्ष की छाया में राह चलते राहगीर पनाह
Read Moreरफ्ता रफ्ता खो गया, दिल का चैन करार। रफ्ता रफ्ता हो गया , मुझको उससे प्यार। जब से मेरी हो
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