कविता – वक्त का दर्पण
वक्त के साथ बहुत कुछ फिर बदल जायेगा कड़ोड़ों खर्च कर गंगा निर्मल नहीं हुई बस पचास दिन में गंगा
Read Moreवक्त के साथ बहुत कुछ फिर बदल जायेगा कड़ोड़ों खर्च कर गंगा निर्मल नहीं हुई बस पचास दिन में गंगा
Read Moreप्रेम त्याग तपस्या है प्रेम ना रीति है प्रेम ना रिवाज धर्मों से परे जातियों से अलग ये एक अनछुआ
Read Moreमैं क्या करुँ? कहाँ जाऊँ? कहाँ नहीं? पता नहीं चलता अब क्या करुँ? काम काज ठप्प पडे हैं मन दुखी
Read Moreबदल रही है साथ समय के गाँव की बेटी बड़ी भोली, बड़ी नादान दुनिया से नहीँ है अब अंजान गाँव
Read Moreपत्थर तोड़ कर सड़क बनाता है मजदूर फिर उसी सड़क पर चलते हुए उसके पैरों पर पड़ जाते हैं छाले
Read Moreघर बार बिहीन ये दुखी ये दीन ! घर बार बिहीन ये दुखी ये दीन !! पैरों पर खड़ा होना
Read Moreहे ईश्वर ! मैं कुछ खास नहीं फिर भी गुफ्तगू करता हूं तुमसे दुनिया का हाल छोड़कर। लोग पूछते हैं
Read Moreभूख ये मिलती कहाँ है? आलीशान बंगलो व महलों में ये मिलती है। झोपड़ियों में चिथड़ों में लिपटे नरकंकालों में
Read Moreनीर बनके आंखो से जो छलछलाए शायद अब लोगों की आंखों से उड़ गया रोते को हंसा दे जो पीर
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