मनीष मिश्रा “मणि” विषय — मन तन में मन सफल प्रयोजन ईश्वर कृति जिंदगी नैया आदि से अंत तक मन खिवैया जन्म से मृत्यु रूह करे वरण चंचल मन
कविता
निर्निमेष निहारते हैं
पेड़ की ओट .. हो जाता हू तब भी देख लेता है मुझे सूर्य का अरुण मुझे ढूंढ़ लेती है सिंदूरी किरणे हो ब्याकूल अज्ञात की उंगलियों सा – छू लेते है झुकी हुई टहनियों के सुकोमल नाखून अपने आँचल में छिपाकर संध्या … रख आती है मन्दिर के द्वार मुझे अबूझ न निगल […]
आज फिर से बचपन जीना चाहती हू..
आज फिर वो बचपन जीना चाहती हू मां के आंचल मे आज फिर से छुपना चाहती हू पापा को अपनी फरमाईशे बता कर दादाजी से सपोर्ट चाहती हू आज फिर वो बचपन जीना चाहती हू दीदी का श्रृंगार चुराना भैया को डाट पिटवाना छुटकी की चोटी खिंचकर फिर से भागना चाहती हू आज फिर वो […]
++++पिता ++++
कमजोर हूँ तो क्या हुआ तुझे अपने कन्धों पर बिठा कर चल सकता हूँ , राह पर कोई कांटे बिछायें तो , चुभे ना तुझे बचा के रख सकता हूँ | गूंगा हूँ तो क्या हुआ , तुझे बोलना सिखा सकता हूँ , कड़वी भाषा भी कोई बोले तो , कैसे तुझे उसमें भी भरनी […]
कविता : तुम तक’
मैं कवि हूँ , तुम कविता हो मेरी मैं लिखता हूँ, तुम से तुम तक मैं साज हूँ, तुम संगीत हो मेरी मैं गाता हूँ , तुम से तुम तक मैं राही हूँ , तुम पथ हो मेरी मैं जाता हूँ , तुम से तुम तक मैं बादल हूँ, तुम रिमझिम हो मेरी मैं बरसता […]
कविता के जीवन में
कविता के जीवन में मै .. जब से आया अनावृत आकाश सा….. हो मन लौट आया मौन के कम्पित जल तरंगो सी तुम्हारी सिरहनों से – रोमांचित ओस बूंदों में भी समाये … प्रणय के जीवंत क्षणों का अर्थ समझ पाया आदिम धडकनों में समाहित निर्वाण के गान भूल…… क्षितिज के उस पार … […]
कविता : कभी कोई शब्द
कभी कोई शब्द , मिलते हैं यूँ अचानक कभी कोई राह , दिखती है यूँ अचानक फिर कोई मौन पुकारता है मुझे …… एक फूल खिलता है, मन के वीराने में और गूंज उठता है एक गीत जब फिर कोई मौन पुकारता है मुझे ….. निःशब्द शांत ह्रदय में , दूर से एक आवाज आती […]
सम सामयिक कविता – “सोच के पार ”
हम भले ही पहुँच गये हों चाँद पर बाहें लम्बी करके छू लिया हो मंगल की धरती और नाप लिया हो सूर्य – तारों की दूरी अपनी तपस्या और प्रताप से किन्तु हमारी सोच अभी भी नहीं बढ़ पायी बर्बर आदिम युग से आगे तभी तो इतनी ऊँचाई से हमें कीड़े – मकोड़े की तरह […]
चिंगारी
प्यार की राह के अंतिम छोर तक हम आ गये हैं पर्वत की चोटियों सा आकाश तक हम आ गये हैं तन से मन ,मन से रूह तक का यह सफ़र अच्छा रहा हमारे साथ रहने कहीं कोहरा कही शबनम आ गये हैं राख के ढेर में छुपी रहती है इश्क की जलती चिंगारी […]
कवितायेँ
हमने जोडा था रिश्ता इबादत के तौर पर उसने समझा इसे शरारत के तौर पर उसको होना ही था हो गया मायूस बहुत दिल से खेला था वो तिजारत के तौर पर परिंदों ने छुआ है गगन उडकर मैंने सीखा है जीना धरा से जुडकर वक्त यूं तो देता नही मौके बार बार […]