इतिहास

ऋ़षि दयानन्द और आर्यसमाज को समर्पित विद्वान पं. युधिष्ठिर मीमांसक

ओ३म्

आर्ष संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य के उच्च कोटि के विद्वान पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी के योग्यतम शिष्य पं. युधिष्ठिर मीमांसक  जी का आज 22 सितम्बर को 107 वां जन्म दिवस है। राजस्थान के अजमेर नगर के एक गांव में 22 सितम्बर, सन् 1909 को उनका ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ था। जन्म से ही आपके पैर टेढ़े थे जिससे आपको जीवन भर चलने-फिरने में कठिनाईयों का समाना करना पड़ा। सन् 1918 में आपकी माता जी का देहान्त हुआ। उनकी इच्छा थी कि उनका पुत्र वेदपाठी पण्डित बने। पण्डित युधिष्ठिर जी की माताजी की इस इच्छा को पूरा करने में पिता गौरीलाल आचार्य के सामने अनेक कठिनाईयां आईं। गुरुकुल होशंगाबाद, गुरुकुल सांताक्रूज तथा गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार आदि गुरुकुलों में अध्ययन हेतु प्रवेश कराने में आपको सफलता नहीं मिली। प्रयासरत रहने पर आपको सफलता मिली और अलीगढ़ के हरदुआगंज में विरजानन्द आश्रम’ में 3 सितम्बर सन्, 1921 को प्रवेश मिला। इस विरजानन्द आश्रम के संचालक आर्यजगत के सुप्रसिद्ध विद्वान संन्यासी स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती थे। आश्रम के प्रमुख शिक्षक आर्यजगत के विख्यात संस्कृत व्याकरण के विद्वान और वेद-पद-वाक्य प्रमाणज्ञ पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, काशी थे और सहयोगी शिक्षक पं. शंकर देव जी तथा धार निवासी पं. बुद्ध देव जी थे। आर्थिक तंगी के कारण विरजानन्द आश्रम को पहले अमृतसर ले जाया गया और उसके बाद काशी ले जाया गया जहां पण्डित युधिष्ठिर जी अपने आचार्यों से संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति से अध्ययन करते रहे। काशी में रहकर ही आपने जयपुर निवासी प्रसिद्ध विद्वान मधुसूदन ओझा, काशी के मीमांसा शास्त्र और कर्मकाण्ड के प्रसिद्ध विद्वान पं. चिन्न स्वामी तथा पं. पट्टाभिराम शास्त्री से विधिवत् मीमांसा शास्त्र का अध्ययन किया। हमारा अनुमान है कि आर्यसमाज में मीमांसा शास्त्र का पं. युधिष्ठिर मीमांसक से बड़ा विद्वान नहीं हुआ है। आपने मीमांसा के शाबर भाष्य का हिन्दी में भाष्य वा अनुवाद भी किया है। यह कार्य इतना विशाल था कि वह अपने जीवन में मीमांसा शाबर भाष्य के भाष्य व अनुवाद के सात खण्ड ही प्रकाशित कर सके। यह कार्य अधूरा ही रहा। आपने अन्य दर्शन काशी के ही प्रतिष्ठित विद्वान पं. ढुण्ढिराज शास्त्री से पढ़े। कर्मकाण्ड अैार कात्यायन श्रौत सूत्र का अध्ययन आपने काशी के शीर्षस्थ विद्वान पं. विद्याधर शास्त्री से किया।

अध्ययन पूर्ण होने पर 21 अप्रैल, 1936 को लाहौर में आश्रम परिसर में आपका समावर्तन संस्कार सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर डी.ए.वी. स्कूल के संस्थापक व प्रिंसीपल महात्मा हंसराज, पं. भगवद्दत्त जी, स्वामी ब्रह्मानन्द जी दण्डी एवं पं. विश्वश्रवा आदि अनेक महान विभूतियां उपस्थित थीं। दिनांक 2 जून 1936 को पं. बह्मदत्त जिज्ञासु जी के पौरोहित्य में पं. भगवानस्वरूप न्यायभूषण की पालिता कन्या नर्मदा बाई जी से आपका विवाह संस्कार सम्पन्न हुआ और आप गृहस्थी बन गये।

जुलाई सन् 1936 से अगस्त, सन् 1942  तक पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने गुरु पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी के निमंत्रण पर विरजानन्द आश्रम (सांगवेद विद्यालय) मे 35 रुपये मासिक पर आश्रम के छात्रों को संस्कृत व्याकरण और निरुक्त आदि पढ़ाने का कार्य किया। अध्यापन के साथ आपने गुरु पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी को उनके द्वारा लिखे जा रहे यजुर्वेद भाष्य विवरण में भी सहयोग दिया। खेद है कि इस यजुर्वेद भाष्य विवरण के 15 अध्याय तक ही प्रकाशन हो सका और शेष धनाभाव के कारण प्रकाशित न हो सके। निजी समय में आप विविध शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन व पारायण करते थे और इसके साथ ही आपने वररुचि कृत निरुत समुच्चय’ का सम्पादन (प्रकाशन सन् 1938), दशपादि उणादिवृत्ति का सम्पादन (प्रकाशन वर्ष सन् 1942), पं. भगवद्दत्त रिसर्च स्कालर के सहयोग से संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास’ ग्रन्थ के लिए सामग्री का संकलन एवं कुछ भाग की पाण्डुलिपि का लेखन तथा शोध विषयक कतिपय लेखों का लेखन कार्य किया।

अक्तूबर 1942 से जून 1944 तक आपने 80 रुपये मासिक पर महर्षि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा, अजमेर में कार्य किया। इस अवधि में आपने अथर्ववेद एवं सामवेद की संहिताओं का शुद्ध मुद्रण सम्पन्न कराया। यहां पहली बार आपने अथर्ववेद के मंत्रों के ऋषि, देवता एवं छंदों का संयोजन किया। ऋग्वेद भाष्य एवं वेदांग प्रकाश के जो संशोधित संस्करण आपने तैयार किये थे उनका प्रकाशन परोपकारिणी सभा के प्रधान श्री हरविलास शारदा जी ने रुकवा दिया। इसका कारण इन ग्रंथों में पं. युधिष्ठिर मीमांसक की सम्पादकीय टिप्पणियां थी जिनका दिया जाना शारदा जी व सभा की दृष्टि में सम्भवतः उचित नहीं था।

शारदा जी के इस व्यवहार के कारण पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने परोपकारिणी सभा के कार्य से त्याग पत्र दे दिया और लाहौर आ गये। अजमेर में रहते हुए आपने ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के इतिहास एवं संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास (भाग प्रथम) की सामग्री को अंतिम रुप देकर इनकी प्रेस कापी तैयार कर ली थी। इसके बाद आप इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए प्रयत्नशील थे परन्तु अगस्त 1947 में देश विभाजन के कारण आपको लाहौर से अपने जन्म स्थान अजमेर के विरकध्यावास ग्राम’ में आना पड़़ा। कुछ समय पश्चात आपको अजमेर के आर्य साहित्य मण्डल में काम मिल गया। यहां अजमेर से कुछ समय बाद आप काशी आकर रहे। महर्षि दयानन्द सरस्वती की जन्मभूमि गुजरात के मोरवी जिले के टंकारा कस्बे में स्थापित अनुसंधान विभाग की योजना को मूर्तरुप देने के लिए आप 9 अप्रैल 1949 को टंकारा पहुंचें और सन् 1962 तक यहां रहकर कार्य किया।

मई 1964 में आप दिल्ली आये। यहां रहते हुए आपने रात्रि समय में आर्यसमाज राजेन्द्रनगर में संस्कृत प्रेमियों को निःशुल्क संस्कृत व्याकरण का अध्ययन कराया। जटिल आर्थिक स्थिति एवं ट्यूशन की सुलभता होने पर भी आपने अध्यापन के लिए कभी किसी छात्र से धन नहीं लिया। आपने संकल्प लिया था कि अपने गुरुओं की ही तरह आप भी सदैव निःशुल्क शिक्षण करेंगे जिसे आपने अपने जीवन भर निभाया।

इसके बाद जीवन के अन्तिम समय तक आप रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़-सोनीपत से जुडे रहे। यहां रहकर आपने ट्रस्ट की प्रसिद्ध मासिक शोध पत्रिका ‘‘वेदवाणी” का सम्पादन किया। इसके साथ ही आपके अधिकांश शोधपरक ग्रन्थों का लेखन एवं प्रकाशन भी यहीं रहकर सम्पन्न किया। आपने जो प्रमुख कार्य किये उनमें ऋषि दयानन्द कृत सभी प्रमुख ग्रन्थों के सटिप्पण एवं विस्तृत परिशिष्टों सहित सम्पादित संस्करण भी हैं। स्वामी दयानन्द जी द्वारा अन्यों को लिखे व अन्यों द्वारा उनको लिखे पत्रों का चार खण्डों में सम्पादन एवं प्रकाशन आपका एक गौरवपूर्ण कार्य है। यही नहीं अपितु स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों का इतिहास, संस्कृत व्याकरण शास्त्र का तीन खण्डों में इतिहास आदि अनेकानेक ऐसे कार्य हैं जिनके लिए आर्यसमाज सदैव आपका ऋणी रहेगा। वैदिक छंदो मीमांसा, वैदिक स्वर मीमांसा, अष्टाध्यायी महाभाष्य (संस्कृत-हिन्दी), यज्ञ व अग्निहोत्र पर अनेक ग्रन्थ, मेरी दृष्टि में ऋषि दयानन्द और उनके कार्य, वैदिक सन्ध्या-यज्ञ प़द्धति, विदुर नीति (हिन्दी अनुवाद) आदि अनेकानेक ग्रन्थ व अनेक विषयों पर महत्वपवूर्ण लेख हैं जिसके लिए आप युगों युगों तक अध्येताओं द्वारा स्मरण किये जायेंगे। खेद और दुःख हैं कि आपके प्रमुख लेखों के दो खण्ड तो आपने ही प्रकाशित करा दिये थे परन्तु उसके बाद के वेदवाणी (मासिक) व अन्य शोध गोष्ठियों आदि में प्रस्तुत आपके शोधपत्रों का संकलन, सम्पादन व प्रकाशन कोई आर्यसमाज व आपका शिष्य नहीं करा सका जबकि आज भी आपके शिष्य बड़ी संख्या में हैं जो साधन सम्पन्न एवं सम्पादन आदि कार्यों को करने व कराने में निपुण हैं। आपकी संस्कृत ग्रन्थों व शास्त्रों में उच्च कोटि की विद्वता के लिए भारत के राष्ट्रपति जी, उत्तर प्रदेश सरकार एवं अनेक शैक्षिक एवं साहित्यिक संस्थाओं ने आपको अनेक अवसरों पर पुरुस्कृत व सम्मानित किया। आपने अपने जीवन काल में अनेक शोधार्थियों का न केवल मार्गदर्शन ही किया अपितु उनकी आर्थिक सहायता भी की। 21 जून सन् 1994 को लम्बी बीमारी के बाद आप इहलोक की अवधि समाप्त कर परलोक सिधार गये।

हम सन् 1975 से निरन्तर आर्यजगत की पत्र पत्रिकाओं के सम्पर्क में रहे हैं जिनमें वेदवाणी भी एक पत्रिका रही है। पंडित मीमांसक जी व पंडित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी के अनेक ग्रन्थों का हमने समय समय पर पारायण किया है। इन दोनों युगपुरुषों के अधिकांश ग्रन्थ हमारे पास हैं जिनमें से कुछ तो दुर्लभ श्रेणी में आ चुके हैं। आपके हिन्दी के लेख अति सरल व सुबोध होते थे जिससे गहन शास्त्रीय विषयों को समझने में सुविधा होती थी। हमने दिसम्बर, 1975 में दिल्ली में आर्यसमाज स्थापना शताब्दी के अवसर पर रामलीला मैदान में आपके प्रथमवार रामलाल कपूर ट्रस्ट के पुस्तक विक्रय केन्द्र में दर्शन किये थे। तब आपने ऋषि दयानन्द के सभी प्रमुख ग्रन्थों के शताब्दी संस्करण अपनी टिप्पणियों सहित अनेक परिशिष्टों के साथ प्रकाशित किये थे जिनका आज भी उतना ही महत्व है। इसके बाद  एक बार सम्भवतः सन् 1995 में, हमें रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ में भी आपके दर्शनों का सासैभाग्य प्राप्त हुआ जब वहां आपको विश्व भारतीय पुरुस्कार से सम्मानित किया गया था। उसी अवसर पर हमने वहां स्वामी सर्वानन्द जी, दीनानगर और स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी के प्रवचन भी सुने थे और उनसे वार्तालाप सहित स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी को डा. रामनाथ वेदालंकार द्वारा निवेदित संस्कार भाष्कर का लेखन व सम्पादन का परामर्श भी दिया था। बाद में यह ग्रन्थ तैयार होकर प्रकाशित हुआ और अब यह संस्कारों पर महत्वपूर्ण साहित्य में प्रमुख ग्रन्थ है। पंडित युधिष्ठिर जी को हमने एक बार सूर्य, चन्द्र आदि पर मनुष्यादि सृष्टि व अन्य कुछ विषयों पर पत्र लिखा था। उन्होंने जो उत्तर दिया वह हमारे पत्र संग्रह में विद्यमान है। सूर्य-चन्द्रादि ग्रहों में मनुष्यादि सृष्टि विषयक उनका एक लेख भी उनके लेखों के संग्रह वैदिक सिद्धान्त मीमांसा’ (दो भाग) में प्रकाशित है। उन्होंने युक्ति व प्रमाणों के आधार पर केवल पृथिवी को ही स्त्रीलिंग होने के कारण इसी पर मनुष्यादि सृष्टि का होना स्वीकार किया है, अन्यत्र नही। आजकल उनके कुछ प्रमुख ग्रन्थों को हमारी सभा-सस्थाओं ने प्रकाशित किया है परन्तु पत्र और विज्ञापन पर वह उनका एक चित्र तक नहीं दे सके जिसके लिए उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग लगाया था। यदि वह पत्रव्यवहार आदि कायह कार्य न करते तो आज ऋषि के पत्र व्यवहार का जो स्वरूप है वैसा कदापि न होता। पं. विश्वनाथ वेदालंकार जी के अथर्ववेदभाष्य सहित कतिपय अन्य ग्रन्थों के प्रकाशन में भी उनकी महती भूमिका व योगदान था। ऋषि दयानन्द जी के प्रथम दो ग्रन्थ सन्ध्या’ और भागवत् खण्डन’ में से दूसरी पुस्तक की खोज व प्रकाशन का श्रेय भी उन्हीं को है।  हमनें इससे पूर्व सन् 1995 में भी पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी की जयन्ती पर एक लेख लिखा था जो देहरादून के हिन्दी दैनिक पत्र हिन्दी हिमाचल टाइम्स’ में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद भी हमने उन पर व उनकी सामग्री के आधार पर उन्हें स्मरण करते हुए अनेक लेख लिखे। आज का लेख भी उसी परम्परा में है। लेख को और अधिक विस्तार न देकर हम इसे समाप्त करते हैं और आज उनकी जयन्ती पर उन्हें सश्रद्ध नमन करते हैं।

— मनमोहन कुमार आर्य