सामाजिक

स्वयं सेवी संगठनों के विकास हेतु कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों में तालमेल आवश्यक

संस्थाओं में कार्यकर्ताओं की भूमिका-
किसी भी संस्था का विकास उसके समर्पित कार्यकर्ताओं पर निर्भर रहता हैं। कार्यकर्ता संस्था में धुरी के समान होते हैं। वृक्ष के बीज एवं नींव के पत्थर की भांति उनकी भूमिका एवं उपयोगिता स्पष्टतः दृष्टिगत नहीं होती है। निष्ठावान कार्यकर्ताओं के बिना किसी भी संस्था का दीर्घकालीन न तो विकास ही हो सकता हंै, और न ही उनके उद्देश्यों की प्राप्ति, जिसके कारण उसका निर्माण हुआ हों। भले ही वह राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, स्वयं सेवी संगठन अथवा अन्य किसी भी प्रकार की संस्था, संगठन ही क्यों न हों। गत चंद वर्षो से मानवीय मूल्यों में जो गिरावट निरन्तर आ रही हैं, जीवन में आध्यात्मिकता एवं सुसंस्कारों की उपेक्षा होने से परोपकार, सेवा, करुणा, त्याग, समर्पण, सहिष्णुता, कत्र्तव्य-परायणता जैसे आवश्यक गुणों का लोप प्रायः होता जा रहा हैं। मानव का दृष्टिकोण प्रायः संकुचित एवं निज स्वार्थ तक ही सीमित होता जा रहा है। धर्म, समाज, राष्ट्र एवं प्राणीमात्र के प्रति हमने अपने उत्तरदायित्वों को प्रायः भुला दिया हैं। बिना कुछ अर्पण किये अथवा बहुत कम देकर, अधिक से अधिक प्राप्त करना चाहते हैं। हमारी कथनी-करनी , आचरण एवं व्यवहार में प्रायः एकरूपता नहीं हैं। हम सदैव अधिकारों की बातें करते हैं, परन्तु कत्र्तव्यों के प्रति निष्क्रिय होते जा रहें हैं। सामूहिक जीवन विकास की कल्पनायें खण्डित हो रही हैं। सुख, दुःख में एक दूसरे के सहयोगी बनने की भावनायें क्षीण होती जा रही हैं, फलतः संस्थाओं, संगठनों के बीच रहते हुए भी हम अपने आपको अकेला अनुभव कर रहें हैं। हमारी दूसरों से अपेक्षायें बहुत होती हैं, परन्तु दूसरों के लिए हमारा त्याग प्रायः नगण्य ही होता है। ऐसी परिस्थितियों एवं बदलते हुए चिंतन के युग में अधिकांश संस्थाओं में प्रायः निष्ठावान कार्यकर्ताओं का अभाव होना स्वाभाविक हैं।
निष्ठावान, सेवाभावी, अनुशासित, समर्पित सक्रिय कार्यकर्ताओं को कैसे तैयार किया जायें और उन्हें संबंधित संस्थाओं, संगठनों के साथ कैसे जोड़ा जायें, प्रायः सभी संस्थाओं की ज्वलंत समस्या है, जिन पर सम्यक् चिन्तन आवश्यक है?
सुसंस्कारों को प्रोत्साहन आवश्यक-
निष्ठावान कार्यकर्ता तैयार करने के लिए नीति निर्माताओं को वर्तमान शिक्षा प्रणाली में युवकों को सुसंस्कारित करने पर ध्यान देना आवश्यक है। विद्यालयों में अध्यापकों और घर में अभिभावकों को बच्चों में सेवा, परोपकार, त्याग, समर्पण, कत्र्तव्यनिष्ठा व नैतिकता जैसे मानवीय गुणों को विकसित करने की नियमित निरंतर प्रेरणा को प्राथमिकता आवश्यक है। इन गुणों के महत्त्व को समझाना होगा। जिस प्रकार पढ़ाई, खेलकूद व अन्य बातों को प्रोत्साहित करने हेतु पुरस्कार दिये जाते हैं, सुसंस्कृत छात्रों को भी पुरस्कृत करना होगा। उन्हें आदर देना होगा, तभी अन्य छात्र इन गुणों को विकसित करने का मानस बना सकेंगे। निष्ठावान कार्यकर्ताओं के अभाव में स्वयं सेवी संस्थाओं का विकास सभी प्रयासों के बावजूद भी अधूरा ही रहेगा।
कार्यकर्ताओं के स्वाभिमान की उपेक्षा न हों-
दूसरी तरफ संस्था में पदाधिकारियों को अपने आचरण एवं व्यवहार में एकरूपता लानी होगी। विशेष रूप से जो निःस्वार्थरूप से सेवायें दे रहें हैं या देना चाहते हैं, उनके स्वाभिमान की रक्षाकर भावनाओं का आदर करना होगा। निर्णय लेते समय उनके सुझावों को ध्यान में रखना होगा। उचित समस्याओं का समाधान करना होगा एवं बिना सोचे समझे व्यक्तिगत आक्षेप लगाने की प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करना होगा। कार्यकर्ताओं में पूर्ण विश्वास रखना और ऐसा आभास करना होगा कि उनकी क्षमताओं का संस्थाओं के हित में सदुपयोग हो रहा है, जिससे उनके अन्दर उत्साह बना रहें एवं संस्थाओं को अपनी सेवायें प्रमोद-भाव से देते रहें।
संस्थाओं के स्वरूप, कार्यप्रणाली और उद्देश्यों के अनुरूप कार्यकर्ताओं की भूमिका अलग-अलग होती है। उनकी पदाधिकारियों, संस्था के अन्य सदस्यों से क्या अपेक्षायें हैं। संस्था कार्यकर्ताओं से क्या अपेक्षायें रखती है? उन बिन्दुओं पर व्यापक दृष्टिकोण से चिंतन आवश्यक है, ताकि निष्ठावान कार्यकर्ताओं के अभाव की समस्या का समाधान ढूंढा जा सके।
अहं पोषण हेतु संचालित संस्थाओं का स्वरूप-
आजकल चंद संस्थायें कुछ व्यक्तियों द्वारा अपने स्वार्थ पोषण हेतु भी खड़ी हो रही है, क्योंकि जब उन्हें अन्य संस्थाओं में अपेक्षित पद, मान-सम्मान नहीं मिलता तो वे नवीन संस्थाओं का गठन कर उसमें स्वयं प्रमुख पदाधिकारी बन जाते हैं। ऐसी संस्थाओं का न तो दीर्घकालीन अस्तित्व ही होता है, न ही मौलिक उद्देश्य। इन संस्थाओं/संगठनों के पदाधिकारी अथवा नेतागण अपने स्वार्थपूर्ति हेतु गिरगिट की भांति अपना रूप बदलकर जन साधारण को मूर्ख बनाने का प्रयास करते हैं। वे ऊँचे-ऊँचे आदर्शो और सिद्धान्तों की बातें अवश्य करते हैं, अच्छे-अच्छे उद्देश्यों का प्रचार-प्रसार कर जन-साधारण को अपनी संस्थाओं से जोड़ने का प्रयास करते हैं, परन्तु उद्देश्यों के अनुरूप न तो स्वयं आचरण करते हैं, अतः अन्य सदस्यों से आचार संहिता का पालन करने की प्रेरणा ही दे सकते हैं। ऐसी संस्थाओं में पदाधिकारियों का एकमात्र उद्देश्य होता है, अपने पद पर बने रहना। जैसा चल रहा है, चलने देना, उद्देश्यों के प्रतिकूल आचरण करने वालों की अनदेखी कर अपना कार्यकाल पूरा करना। उनमें आत्मविश्वास और दृढ़ मनोबल का अभाव होने से, वे अन्य सदस्यों की क्षमताओं का न तो पूर्णरूपेण सदुपयोग ले पाते हैं, न ही अपने दायित्वों का ईमानदारीपूर्वक निर्वाह ही कर पाते हैं। जिन संस्थाओं में सिद्धान्तों और उद्देश्यों के प्रति निष्ठा ही नहीं होती, ऐसी संस्थाओं में निष्ठावान कार्यकर्ताओं की कल्पना कैसे की जा सकती है? जैसे-जैसे वास्तविकता प्रकट होती जायेगी, वैसे-वैसे जनसहयोग समाप्त होता जायेगा। ऐसी संस्थाओं और संगठनों का प्रभाव अस्तित्व धीरे-धीरे स्वतः ही समाप्त हो जाता है, भले ही उसको कितने ही सिद्धान्तहीन प्रभावशाली व्यक्तियों का सहयोग और समर्थन भी क्यों न प्राप्त हो?
व्यवसायिक संगठनों में कार्यकर्ताओं की भूमिका-
चंद संगठन व्यापारिक, व्यवसायिक अथवा कर्मचारियों के हितों की रक्षा हेतु गठित होते हैं। जिनके न तो व्यापक उद्देश्य होते हैं, न ही नियमित कार्यक्रम। उनका कार्यक्षेत्र अपने हितों की रक्षा करना और विकास हेतु सेमीनार, विचार, चर्चायें, प्रदर्शनियों का आयोजन करना व नीति-निर्माताओं को अपने प्रभाव और षक्ति से अवगत कराना होता है, ताकि निर्णय लेते समय उनके हितों की उपेक्षा न हों। ऐसी संस्थाओं की आवश्यकतानुसार गतिविधियां संचालित होती रहती है तथा कार्यकर्ताओं की विशेष भूमिका नहीं होती। फिर भी सामूहिक कार्यक्रमों के आयोजनों एवं आंदोलनों के समय सफलता हेतु सक्रिय निष्ठावान कार्यकर्ताओं की भूमिका से नकारा नहीं जा सकता। इसी प्रकार कुछ संस्थायें पर्व या अधिवेशन विशेष का आयोजन करने अथवा समान उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये गठित होती है। जैसे ही उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाती है, संस्था में कार्य बंद हो जाता है फिर भी जब तक कार्यक्रम समाप्त न हो तब तक तो निष्ठावान कार्यकर्ताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत संगठनों में कार्यकर्ताओं की भूमिका-
परन्तु अधिकांश राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक या स्वयं सेवी संस्थाओं का गठन कुछ न कुछ मौलिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये होता है और उसका स्वरूप, क्षेत्र विशेष में न होकर राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक फैला हुआ होता है। उसकी केन्द्रीय एवं क्षेत्रिय स्तर पर सैंकड़ों षाखायें, उपशाखायें होती है और हजारों सदस्य तथा कार्यकर्ता उनसे संबंधित होते हैं। अधिकांश संस्थाओं का स्वरूप जनतंत्र पर आधारित होने से प्रत्येक कार्य में बहुमत की भावना का ख्याल रखा जाता है। ऐसी संस्थाओं में नियमित निरन्तर प्रगति हेतु अनुभवी परामर्शदाताओं, पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं व अन्य सदस्यों के विचारों में एकरूपता, आपस में सहयोग व विश्वास की भावना तथा संस्था के उद्देश्यों के प्रति समर्पण की भावना आवश्यक होती हैं। पदाधिकारियों का अनुकूल स्वास्थ्य, व्यापक दृष्टिकोण, तनाव रहित प्रभावशाली व्यक्तित्व, समयानुकूल निर्णय लेने का मनोबल, प्रशासनिक क्षमता और पद की गरिमा के अनुरूप समय का भोग एवं आचरण आवश्यक होता है। यदि उनमें सबके साथ तालमेल रखने की योग्यता, संस्था के कार्यो में रुचि, नियमितता, सरलता और मुस्कराहट जैसे गुण हों तो सैकड़ों निष्ठावान कार्यकर्ताओं को संस्था से जोड़ने में वे सफल होते हैं, जिससे संस्था का विकास निश्चित रूप से तीव्र गति से होता है। जितना-जितना इन मापदंडों का ध्यान रखा जायेगा, उतने-उतने संस्था को सेवाभावी सक्रिय कार्यकर्ता उपलब्ध होंगें।
धार्मिक और सामाजिक संगठनों में पदाधिकारियों की वर्तमान स्थिति-
प्रायः पदाधिकारियों का चयन करते समय पद एवं पैसों को इतना अधिक महत्त्व दे दिया जाता है कि अन्य आवश्यक प्राथमिक मापदंडों की उपेक्षा करने से संस्था उपयुक्त पदाधिकारियों के नेतृत्व से वंचित रह जाती है। आजकल धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं में अधिकांश षीर्षस्थ प्रमुख पदाधिकारी इतने ज्यादा व्यस्त होते हैं कि उनको इस बात का भी ध्यान नहीं रहता कि वे किन-किन संस्थाओं में, कौन-कौन से पदों का दायित्व लिये हुए हैं। न तो उनमें संस्थाओं के प्रति विशेष रूचि ही दिखाई देती हैं, और न ही वे संस्थाओं के कार्यो को प्राथमिकता देने की आवश्यकता समझते हैं। उनको सभा में उपस्थित होने के लिये पुनःपुनः स्मरण कराना पड़ता है, फिर भी कभी-कभी कुछ न कुछ व्यस्तता का बहाना ढूंढ प्रायः उपस्थित नहीं होते। आवश्यक सभाओं में उनकी उपस्थिति न होने से संस्था को उनका मार्गदर्शन नहीं मिल पाता, फलतः कार्यकर्ताओं, का हतोत्साहित हो जाना स्वाभाविक है। जो प्रमुख पदाधिकारी स्वयं निष्ठावान और सक्रिय न हों तो वे दूसरों को सक्रिय बनाने की कैसे प्रेरणा दे सकते हैं?
उपलब्धियों की समीक्षा संस्था की क्षमतानुसार आवश्यक-
प्रायः संस्थाओं का वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करते समय संस्था से जुड़े प्रमुख पदाधिकारियों के द्वारा ऐसा अनुभव कराया जाता है कि संस्था ने बहुत अधिक लक्ष्य प्राप्त कर लिये हैं। छोटी-छोटी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ा कर दर्शाया जाता है। वे स्वयं इस बात की समीक्षा तक नहीं करते हैं कि उनका विकास संस्था के स्वरूप और सदस्यों की क्षमता के अनुरूप कितना संतोषजनक है? क्या जनसाधारण में संस्था की छवि प्रर्दशित करने हेतु मायावी आंकड़ें तो प्रस्तुत नहीं हो रहें हैं? क्या वे संस्थाओं में बिना रुचि जबरदस्ती कार्य करने का जनसाधाारण को एहसान तो नहीं दिखा रहें हैं? क्या ऐसे पदाधिकारियों को संस्थाओं के मूल परम्पराओं एवं सिद्धान्तों की जानकारी होती है? उनका संस्था के प्रति क्या उत्तरदायित्व हैं और उसको वे कितना निभा रहे हैं? संगठन, कार्यकर्ताओं और जनसाधारण की उनसे क्या अपेक्षायें हैं एवं उन्होंने उनको कितना पूर्ण किया हैं? उनके आचरण और व्यवहार से अन्य सदस्य संस्था के प्रति उदासीन तो नहीं हो रहें हैं? उन्होंने प्रगति के क्या लक्ष्य निर्धारित किये हैं एवं कितनी सफलता प्राप्त की हैं? क्या उनका दृष्टिकोण स्वार्थमय, संकुचित एवं पूर्वाग्रहों से ग्रसित तो नहीं हैं? क्या उन्होंने अन्य सदस्यों को विश्वास में लें, उनकी क्षमताओं का संस्था के हित में उपयोग लेने का प्रयास किया? जनसाधारण संस्था के प्रति उपेक्षावृत्ति क्यों अपनाये हुए हैं, इस बात का चिंतन किया? षीर्षस्थ पदाधिकारियों को संस्था के हित में उपरोक्त बिन्दुओं पर चिन्तन कर अपनी भूमिका का आत्मनिरीक्षण करना होगा। सदस्यों/चयनकर्ताओं को भी प्रमुख पदाधिकारियों का चयन करते समय योग्यता के आवश्यक मापदण्डों का निर्वाह करना होगा। जितनी-जितनी इन मापदंड़ों की उपेक्षा होगी उतना ही संस्था का विकास अवरूद्ध होगा, विकास की गति भी धीमी होती जायेगी और निष्ठावान कार्यकर्ता संस्थाओं से अलग होते जायेंगे।
समयाभाव वालें का पदासीन रहना संस्था के विकास में बाधक-
वाणी पर असंयम वाले पदाधिकारियों का आज के युग में पद और पैसों के प्रभाव से नकारा नहीं जा सकता। संस्था की अधिकांश योजनाओं की क्रियान्विति में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, अतः जन-साधारण का उससे प्रभावित हो, पदाधिकारियों के चुनाव में प्राथमिकता देना स्वाभाविक होता है। विशेष रूप से प्रायः धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं में ऐसा आभास कराया जाता है कि पदाधिकारी दायित्व लेने को तैयार नहीं होते, उन्हें जबरदस्ती नेतृत्व सौंपा जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर नैतिक दृष्टि से आक्षेप लगाना अथवा अपेक्षायें रखना कहां तक उचित है? यद्यपि बिना स्वीकृति एवं इच्छा से कोई पदाधिकारी नहीं चुना जाता है। भले ही बाहर से वे कुछ भी कहें। पद स्वीकारने के पश्चात् वे संस्था की कितनी सुध लेते हैं, उसकी समीक्षा वे स्वयं ही करें। हमारी दृष्टि भी सभाओं में उपस्थित चंद व्यक्तियों से आगे सभी सदस्यों की योग्यताओं पर विशेष रूप से नहीं जाती है। चंद पूर्वाग्रहों व मापदंड़ों से आगे चिंतन नहीं चलता। हम यह भूल जाते हैं कि व्यक्ति का पदाधिकारी के रूप में चयन कर संस्था ने उस पर विश्वास व्यक्त किया हैं, उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई है और जो व्यक्ति पद की गरीमा के अनुरूप दायित्वों को नहीं निभाता, उसको संस्था के हित में पद का मोह नहीं रखना चाहिये और सदस्यों के आग्रह के बावजूद पद नहीं स्वीकारना चाहिये। पद ग्रहण करने के पश्चात् उत्तरदायित्वों की उपेक्षा करने से अच्छा होता ऐसे पद रिक्त रखें जायंे, ताकि जनसाधारण संस्था के विकास की अपेक्षा ही न करें। संस्था में बिना रूचि, समय का नियमित भोग न देने वाले, व्यस्त पदाधिकारियों का चयन कर, जो संस्था के कार्यों को प्राथमिकता न दे सकें, हमने संस्थाओं का न केवल अवमूल्यन ही किया है, अपितु विकास की गति को अवरुद्ध कर सदस्यों की क्षमताओं का पूर्ण उपयोग नहीं कर पा रहे हंै। सेवाभावी सदस्यों की सेवायें लेने में किसको आपत्ति हो सकती हैं, आपत्ति तो सेवक कहलाकर अपेक्षानुसार सेवा न करने वालों से होती हैं। हमें वास्तविकता को स्वीकारना होगा एवं अपने दृष्टिकोण को बदलना होगा।
पदाधिकारियों की आवश्यक योग्यताएँ-
हजारों ऐसे प्रभावशाली व्यक्ति हैं, जिनमें पद और पैसों के साथ-साथ अन्य आवश्यक योग्यताएँ भी होती हंै। यदि उन्हें नेतृत्व सौंपा जावें तो समाज के लिए वे अत्यधिक उपयोगी हो सकते हैं। अतः संस्था के प्रमुख पदाधिकारियों का चयन करते समय पद व पैसों के साथ-साथ उनकी संस्था को समय का भोग देने हेतु सभी व्यवस्ताओं के बावजूद प्राथमिकताएँ, रुचि, स्वभाव, स्वास्थ्य की अनुकूलता, संस्था के कार्यों का अनुभव, कार्य लेने की क्षमता और चयनकर्ताओं को भी उनमें पूर्ण विश्वास व्यक्त कर अपेक्षित सहयोग देना चाहिए। उनको स्वविवेक से कार्य करने की छूट देनी चाहिए, और छोटी-छोटी बातों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, जिससे पदाधिकारी अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक उपयोग संस्था के हित में कर सकें और निष्ठावान कार्यकर्ताओं को जोड़ सकें। वाणी का संयम जैसे आवश्यक गुणों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
प्रभावशाली व्यक्तियों को संस्था से कैसे जोड़े?-
वर्तमान युग में मानव का दृष्टिकोण बदल रहा है। पारिवारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, राष्ट्रीयता की भावनायें खंडित हो रही है। सामूहिक दायित्वों को हम भूलते जा रहे हैं। संस्थाओं के उद्देश्यों के प्रति आस्था होने के बावजूद स्वार्थपूर्ति न होने से उनसे नहीं जुड़ पा रहे हैं। बाह्य जगत में चंद भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने वाले प्रभावशाली व्यक्ति संस्थाओं में जब तक उनके पद एवं सम्पत्ति के अनुरूप मान-सम्मान और आग्रह के साथ सर्व-सम्मति से पद न दिया जावे। बिना पद संस्था की गतिविधियों में रुचि लेना प्रायः अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानते हैं। अपने अभिमान का व्यापक हित में मोह नहीं त्याग पाते और न संस्था को अहं पोषण से अधिक कुछ समझते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अपेक्षित पद न मिलने से उनकी दृष्टि संकुचित हो जाती है। सदैव संस्थाओं की असफलताओं एवं कार्यकर्ताओं के दोषों का ही ख्याल रखते हैं। वे अपना मार्गदर्शन भी नहीं देते हैं और न ही सहयोग, परन्तु अपनी प्रतिक्रियाओं से जनसाधारण को अपने अस्तित्व का समय-समय पर आभास कराते रहते हैं। आज हजारों ऐसे प्रभावशाली , अनुभवी व्यक्ति हैं जो अपेक्षित पद न मिलने से अपने आपको संस्थाओं से अलग किये हुए हैं। उनके अमूल्य समय, श्रम, साधनों और क्षमताओं का संस्था के व्यापक हित में कैसे उपयोग किया जावे, प्रायः अधिकांश विकासशील संस्थाओं की ज्वलंत समस्या है तथा संस्थाओं के विकास को गति अवरुद्ध किये हुए हैं?
संस्था में प्रमुख पदों की संख्या नियमानुसार सीमित होती है और सभी प्रभावशाली व्यक्तियों की अपेक्षाओं को कैसे पूरा किया जावें, चिंतन का विषय है? संतजनों की प्रेरणा ही उनको जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। जब यह वर्ग बिना किसी अपेक्षा अपना कत्र्तव्य समझ संस्थाओं की दैनिक गतिविधियों में नियमित रूचि लेगा और क्रियात्मक सहयोग देगा तो अपने प्रभाव के कारण सैकड़ों निष्ठावान कार्यकर्ताओं के लिये प्रेरणा स्रोत बन जायेंगे। परन्तु यह कार्य इतना सरल नहीं है जितना हम सोचते हैं। ऐसे वर्ग को संस्था में संरक्षक, परामर्शदाता या आर्थिक समितियों में अनुभव एवं आवश्यकतानुसार चयन कर उनकी अपेक्षाओं को कुछ हद तक पूर्ण किया जा सकता सकता है। परन्तु प्रमुख पद तो सबको देना कैसे संभव हो सकता है?
सदस्यों की आचार संहिता उद्देश्यों के अनुरूप आवश्यक-
पदाधिकारियों की भांति कार्यकर्ताओं की निष्ठा का मापदंड क्या हो? समाज को उससे क्या अपेक्षायें हैं? क्या वे संस्था के व्यापक हित का ख्याल रखें या परामर्शदाताओं एवं पदाधिकारियों की भावना को प्राथमिकता दें? संस्था के विकास में बाधक मायावी प्रवृत्तियों को रोंके अथवा जैसा चल रहा है, उसे चलने दें, जो हो रहा है होने दें उस पर निष्क्रिय बन उपेक्षा कर दें। प्रायः सदस्यों के उद्देश्यों के अनुरूप आचार संहिता की आवश्यकता जैसे विषयों पर जब कभी चर्चा का प्रसंग आता है, सभाओं में भूचाल आ जाता है। हमारा सद्विवेक उस समय न मालूम कहाँ चला जाता है और खुले आम उसका विरोध कर देते हैं? ऐसा व्यवहार हमारी स्वार्थ मनोवृत्ति एवं मायावी प्रवृत्ति का खुला प्रदर्शन हंै, जो हमारे इरादों को स्पष्ट करता है। हमें मौलिक सिद्धान्तों और नियमों के विरुद्ध विवादास्पद आचरण क्यों सहन हो रहें हैं? हम क्यों भ्रमित हो सेवा के नाम पर जनसाधारण को गुमराह कर संस्था के साथ विश्वासघात कर रहें हैं? यदि संस्थाओं का संचालन इसी प्रकार करना है तो निष्ठावान कार्यकर्ताओं का मोह त्यागना होगा।
कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों में तालमेल आवश्यक-
निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अपेक्षा है कि संस्था के पदाधिकारी पद की गरिमा के प्रतिकूल आचरण न करें। पद के अनुरूप संस्था के विकास हेतु समय दें। अपने अधीनिस्थ पदाधिकारियों की समस्याओं को समझें एवं सही समय पर उचित परामर्श दें। संस्थाओं की प्राथमिकता निश्चित हों। सिद्धान्तहीन लोकप्रियता से बचा जावे। संस्था को अहम् पोषण व स्वार्थ सिद्धी का माध्यम न बनाया जावे। उनकी क्षमताओं का अधिकाधिक उपयोग हों, अनावश्यक हस्तक्षेप रोका जावे। बिना विचारे उन पर अविश्वास अथवा आक्षेप न लगाये जावें। उनके स्वाभिमान की रक्षा हों। नीति संबंधी निर्णय लेते समय व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जावें न कि थोपें जावें। परामर्शदाता पूर्वाग्रह छोड़ व्यापक, व्यावहारिक दृष्टिकोण अपना मायावी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन न दें। योग्यता के मापदंडों को ध्यान में रख उपयुक्त पदाधिकारियों का चयन कराने में मदद दें, व्यर्थ प्रपंचों से अपने आपको अलग रखें तथा नीति संबंधी विषयों को छोड़ दैनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप कम करें। ऐसा अभिमान न करें कि समाज एवं संस्थायें उनके ही बलबूते पर चलते हैं एवं जैसा वे सोचते हैं करवाने में सक्षम हैं। कार्यकर्ताओं में इतना विश्वास हों कि सारा संगठन संस्था के व्यापक हित में उनके साथ हैं एवं आवश्यकता पड़ने पर अपनी क्षमतानुसार उनको सहयोग करेंगे। यदि संस्थाओं के सदस्य कार्यकर्ताओं की इन भावनाओं का ध्यान रखेंगे तो किसी भी संस्था को निष्ठावान कार्यकर्ताओं का अभाव अनुभव नहीं होगा। जितनी-जितनी इन अपेक्षाओं की पूर्ति होगी, सक्रिय कार्यकर्ता जुड़ते जायेंगे और जितनी-जितनी उपेक्षा होगी कार्यकर्ता अलग होते जायेंगे। अतः प्रत्येक संस्था को अपने कार्य प्रणाली की समीक्षा करनी पड़ेगी और उन परिस्थितियों को सुधारना होगा जो कार्यकर्ताओं को निष्ठापूर्वक कार्य करने के मार्ग में बाधक बने हुए हैं तब ही निष्ठावान कार्यकर्ताओं का अभाव मिट सकेगा।

— डाॅ. चंचलमल चोरडिया

डॉ. चंचलमल चोरडिया

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