कहानी

मेरे ख़्वाबों की हक़ीक़त.

मेरे ख़्वाबों की हक़ीक़त और मेरा अरमान थी वो, मैं उसे दिल की बे इंतेहा गहराइयों से प्यार करने लगा था, उसने मुझे वक़्त का पाबंद बना दिया था, मैं अहले सुबह उठ जाया करता था, सब काम वक़त पर निपटा कर पढ़ाई के लिए कॉलेज निकल जाया करता था, उन दिनों कॉलेज पैदल ही जाना होता था, मोटर सायकिल का ज़माना नहीं था, मुराद ये कि सब के पास ऐसे साधन का होना बड़ी बात हुआ करती थी,और वो भी कॉलेज में मेरा इंतज़ार करती हुई मालूम होती थी, दिसंबर की वो गुलाबी ठंड थी, और ऐसे ही किसी गुलाबी शाम को उससे मेरी मुलाक़ात हुई थी। उसका नाम पिंकी था, पिंकी से पहले भी कई लड़कियां मैंने देखीं थी, मगर पिंकी से मुलाक़ातों का सिलसिला कुछ इस तरह रहा कि इश्क़ परवान चढ़ गया, वादे शादी तक पहुँच गए, इम्तेहान हो गए  रिज़ल्ट आया , कामयाबियाँ  और मुस्तक़बिल की फिकरों के साथ ,ख़त किताबत का सिलसिला जारी रखने की बातों को लेकर रुख़्सती का वक़्त आ गया.

मुझे आगे पढ़ाई के लिए  शहर भोपाल आना पड़ा, और वो अपने शहर में एक मुक़ामी स्कूल में टीचर हो गई,   मैंने भी भोपाल  शहर के एक होम्योपैथिक कॉलेज में  दाखिला ले लिया था, फिर उससे कभी कभार मिलना हो जाया करता था, ख़तों का सिलसिला भी जारी  रहा, मेरा एक साल बखूबी रहा और मैं  अगली क्लास में पहुँच गया था, मैं पहले अपनी  पढ़ाई मुकम्मिल करना चाहता था, उसके बाद ही मैं चाहता था कि पिंकी से शादी करके खुशहाल ज़िन्दगी  गुज़ारूँगा,और पिंकी भी इस फैसले के लिए रज़ामंद थी, हमारी मुहब्बत से और रिश्ते से उसके और  मेरे घर वाले भी वाकिफ़ थे, सो कोई फ़िक्र वाली बात भी नही थी,

      एक रोज़ मैं भोपाल बड़े तालाब के पास  बैठा दूर दूर तक फैली शाम की हल्की हल्की तारीक लहरों को  डूबते हुए देखरहा था, हवा के ठंडे   खुशनुमा झोंके दिल और दिमाग़ को   बहला रहे थे, ऐसा लग रहा था शायद कहीं  समंदर में जहाजों की आवाज़ें आरहीं हैं, और  ये आवाज़ें फ़ज़ाओं को चीर कर नसीब की आहों से टकरा कर  मुझे खबरदार कर रहीं हैं ,  बरसों  से ये ही होता आरहा है इंसान जो चाहता है  वो उसको नहीं मिल पाता है, समंदर में लहरें उठती हैं  सिसकती हैं, और वापस  समंदर में गुम हो जाती हैं,   नहीं नहीं मैं क्या सोचने लगा , मैंने  इन ख़यालों को झटका दिया, और हक़ीक़त की दुनिया में लौटकर रूम की तरफ़ गामज़न  हो गया, बे मतलब के ख्याल रात भर सताते रहे , नींद पूरी न हो सकी,   ये मार्च का  महीना था, सोचा के एग्जाम के बाद पिंकी से मिलूंगा, और फिर  मैं पढ़ाई की तैयारी में लग गया,  

मुझे पिंकी ने बताया  था कि वो  नौकरी छोड़ कर बी. एड. करना चाहती है, इस सिलसिले में उसे  बुराहनपुर जाना होगा, लेकिन ,अभी नहीँ मार्च  तक तो स्कूल में पढ़ाती रहूँगी, उसने कहा था कि शायद तुमसे अभी कुछ दिनों मिलना या बात न हो सकेगी, मेरा भी पूरा ख़्याल था कि वो आगे की तालीम किसी तरह जारी रखे, और एक कामयाब शख़्शियत बन कर समाज को  फ़ैज़ याब करे. में भी मुतमईन हो गया, उसने कहा था जनाब हम कहाँ जा रहे हैं हम तो आपके ही हैं, लेकिन अभी तो इंतज़ार का मज़ा लीजिये, और इम्तेहान में दिल लगा कर आगे बढ़ते रहो,  इस तरह  मार्च  के बाक़ी दिनों पिंकी से कोई बात चीत न  हो सकी मोबाइल का भी ज़माना नहीं था,  उसके  काफ़ी ख़त मैंने अपने पास महफूज़ रख  छोड़ें थे, जो आज भी मेरे पास हिफ़ाज़त से ही रखे हुए हैं,

  इम्तेहान के बाद जब मैं वापस लौटा तो पिंकी से मिल न सका   बेचैनी बढ़ गई, उसके घर की जानिब चल पड़ा पता लगा कि सब लोग वापस अपने शहर चले  गए हैं, उसके  वालिदैन भी सर्विस में थे, सोचा के कोई बात नहीं शहर का तो पता है वहां जाकर  मिलआऊंगा, जब मैं वहां पहुंचा तो पिंकी भी थीं और घर के तमाम अफ़राद भी मौजूद थे,पिंकी ने ठीक से बात नहीं कि  उखड़ी उखड़ी नज़र आई,   मुझे अपने सपने टूटते नज़र आये, फिर एक दिन पता लगा कि पिंकी का  रिश्ता कहीं पक्का होने वाला है, और जल्द ही सगाई भी होे जायेगी।  मैने बहुत कोशिश की  कि पिंकी से  अकेले में  बात हो जाए मगर अब   मिलना मुहाल हो गया था, कोई सूरत नज़र न आरही थी ,पिंकी ने एक ख़त भेजा   और लिखा कि ज़िंदगी एक सच्चाई है जिससे मुंह नही मोड़ा जा सकता, मैं तुम्हारी हर खुशी में तुम्हारे साथ थी, और दुआ करती हूं कि तुम सदा खुश रहो और एक खुशहाल  ज़िन्दगी बसर करो, मुझसे अब तुम्हारा मिलना मुकमकिंन नही है,वजह तो आप ख़ुद जानते हैं, मैं खुद यहां से अपना रास्ता अलग करती हूँ,

अब जब बात ही ख़त्म होगई तो बाक़ी क्या बचा था, टुटा हुआ दिल रफ़्ता रफ़्ता  समझ गया,  और वक़्त ने एक मरहम का काम किया,और,,,,,  आखिरकार ज़ख़्म भर ही गया, लेकिन कभी कभी ज़हन में आता कि आख़िर वजह क्या थी , पिंकी  ने सच्चाई  बताना मुनासिब क्यों नहीं  समझा, क्या घर वालों का प्रेसर था या मुझमें कोई ग़ल्ती या कमी नज़र आने लगी थीं, या मुझसे  वाकई कोई भूल जाने अनजाने में  हो गई थी, समझ नहीं पा रहा था,  मैं भी तो डॉक्टर बनने वाला था,क्या मैं ज़िन्दगी की खुशियां पिंकी को देने में नाकाम साबित होने वाला था, खैर सोचने  से अब क्या होगा, मुक़्क़द्दर के फ़ैसले तो ख़ुदा ही करता है ,फ़िर उसने भी कुछ सोचकर ही  हमारा नसीब लिख दिया होगा,,,,,,

     तक़रीबन इस मुआमले को 4 साल हो गए थे, वक्त कब किसी के रोकने से रुकने वाला था, वक्त गुज़रता चला गया, एक रोज़ मैं अपने  क्लिनिक टाइम से नही पहुंच पाया था, और जब मैं cilinic पहुंचा तो  मेरे अस्सिस्टेंट ने मुझे एक  लिफ़ाफा मेरे हाथों में देकर कहा कि कोई मोहतरमा आईं थी काफी इंतेज़ार किया फ़िर ,आप नहीं आ पाये तो वो चली गईं, लिफ़ाफा काफ़ी ख़ूबसूरत था,  ऊपर पिंकी लिखा था, मेरी हैरत का ठिकाना नहीं रहा, बेसब्री बढा जल्दी से लिफ़ाफा खोला, तहरीर को  बखूबी अंजाम दिया गया था, सलाम भी लिखा था मुझको, खैर,,,,, 

अंदर लिखा था , मैं बहुत दिनों से तुमको  तलाश कर रही थी, शुक्र है   ख़ुदा का शुक्र कि आख़िर आपका पता मिल ही गया, मेरे दिल में कई ख़्याल आये और दिल मुस्कराने लगा आंखें चमक उठी, उसने लिखा था, ठीक 6 बजे शाम न्यूमार्केट के उसी कैफ़े में जहाँ कभी हम मिले थे. मेरी बेक़रारी बढ़ ने लगी थी, मैं इस हसीन मुलाक़ात को दिल ही दिल में तरक़ीब  से तरतीब देने लगा, और फ़िर  मैं तैयार होकर  वक़्त से पहले ही मुक़र्रर जगह पर पहुंच गया, जहां मैंने देखा कि वो भी वहां पहले से  ही रोशन अफ़रोज़ थी उर उसे देखते ही मैं बेक़ाबू से हो गया, लेकिन वक़त से पहले ही मैं ने खुद को संभाल लिया और  उससे  मुख़ातिब होकर सामने वाली चेयर पर  बैठ गया, मुझे आज का वक़्त और ये लम्हे हक़ीक़त  कम ख़्वाब ज्यादा लग रहे थे,

      उसकी आंखें भी बहुत कहना चाह रही थी मैं ने उसकी आँखों में झांकने की कोशिश की , और उसे आँखें झुकाकर पूछा कैसी हो,  उसने  लापरवाही से कहा आपके सामने हूँ  चेहरा पढ़ लो, आप चेहरे पर लिखा बखूबी  पढ़ने में  माहिर हो,,, उसकी आंखों में हैरत उभर आई थी, और यकायक उसके चेहरे का रंग एक दम बदलने लगा, हम एक दूसरे के सामने थे मगर कुछ पल के लिए  हमारे दरमियान ख़ामोशी ने ले ली थी, अल्फ़ाज़ गायब हो गए थे,   मैं ने चुप्पी तोड़ कर  पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया। उसने कहा मैं ने? मैं ने  क्या  किया ज़रा मेरी आंखों में आंखें  डालकर  पुछो न, आंखों में  शर्मिंदगी क्यों  नज़र  आ रही है, वो बिना रुके मुझ पर अल्फ़ाज़ों से हमला आवर थी. 

मैं ने मुख़्तसर  कहा हमने तो साथ जीने  मरने मि क़समें खाई थीँ, फिर वो सारा माजरा  तो बेरुखी का था, उसको बताया वो ख़ामोश ,सुनती रही , मैं ने कहा तुम बेवफ़ा हो  ,वो कहने लगी  कैसे गुज़र रही फ़ैमिली के साथ बड़ा  सुकून होगा, बीवी  तो बहुत हसीन  ही होगी,  मैं ने कहा किस  फेमिली की बात कर रही हो,  मैं तो आज भी तुम्हारा इंतेज़ार कर रहा हूं, झूठ बोलते हो, मेरी आंखों में नमी नुमाया ही गई आंखें  लाल सी हो गईं थी उसकी, फिर भी  उसे कोई फ़र्क नही पड़ा बो मुझे और सख़्त नज़र आई, मैंने कहा आज  तुमने मुझे यहां क्यों तलब किया है,

वो बोली , इतनी बेक़रारी  क्यों है, दरअसल आपकी एक  अमानत मेरे पास महफूज़ है, वो लौटाने आईं थी, फिर उसने एक खूबसूरत मुड़ा हुआ कागज़ मेरे तरफ़ बढ़ा दिया,  जिसको पहले तो मैंने सरसरी तौर पर निगाह डाल कर देखा फ़िर बहुत ही  जल्दी हैरत के साथ  पढ़ता चला गया,  वो एक टाइप किया हुआ मज़मून था, जिसमें लिखा था, डियर पिंकी मैं अपनी ज़िंदगी किसी ओर के साथ वाबस्ता करना चाहता हूँ ,क्यूंकि मैं जानता हूं तुम मुझसे मुहब्बत नहीँ करती तुम्हारे ख्वाबों का शहज़ादा कोई और है, मैं तुम्हें ज़िंदगी की वो खुशियां नहीं दे सकता जो तुम चाहती हो, आज के बाद मेरा तुम्हारा कोई रिश्ता नही मैं तुमसे अपने सारे रिश्ते तोड़ता हूँ, मुझसे तुम्हें शिकायत ज़रूर होगी, लेकिन मुझे तुमसे कोई गिला नहीं है,

            ये ख़त मैं ने कब लिख दिया सोचने लगा नीचे दस्तख़त मेरे ही मालूम होते थे, मेरा पूरा वजूद घायल सा हो गया, पलकें झपक नहीं  पा रहा था पैरोँ के नीचे से ज़मीन खिसकती महसूस हुई,  में कुछ समझ नहीं पा रहा था, क़ुवत्ते गोयाई ख़त्म हो गई थी,  आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा, और मैं चक्कर खाकर गिर गया, उसके बाद जब मुझे होश आया तो मैंने खुद को एक क़रीबी  हॉस्पिटल में  पाया,  और पिंकी भी मेरे नज़दीक बैठी थी,  मैं ने उसका हाथ अपने हाथों  में लेकर कहा, पिंकी तुम भी न ,सच अपनी क़सम ये किसी की शरारत थी, जिसके लिए तुमने मुझसे बात भी करना मुनासिब नहीं समझा, और मैं अपनी तक़दीर को कोसता रहा, ये ख़त मैंने कभी लिखा ही नहीं, एक ग़लत फ़हमी की इतनी बड़ी सज़ा, उफ मेरे अल्लाह,

और एक ख़त को मुझ तक पहुंचाने में तुमने कितना वक्त गंवा दिया, पिंकी, पिंकी मैं बस तुम्हारा था तुम्हारा ही हूँ और रहूंगा, पिंकी की आंखे नम हो गई,   वो ये कह कर मुझसे लिपट गई, प्लीज़ मुझे मुऑफ़ कर दो ग़लती मेरी थी मुझे तुमसे साफ़ साफ़ बात करना चाहिये थी,। और फिर दोनों तरफ से खुशियों के आँसू निकल पड़े, दोनों चहरे मुस्कुरा उठे,।

— डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह 

डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह

पिता का नाम: अशफ़ाक़ अहमद शाह जन्मतिथि: 24 जून जन्मस्थान: ग्राम बलड़ी, तहसील हरसूद, जिला खंडवा, मध्य प्रदेश कर्मभूमि: हरदा, मध्य प्रदेश स्थायी पता: मगरधा, जिला हरदा, पिन 461335 संपर्क: मोबाइल: 9993901625 ईमेल: dr.m.a.shaholo2@gmail.com शैक्षिक योग्यता एवं व्यवसाय शिक्षा,B.N.Y.S.बैचलर ऑफ़ नेचुरोपैथी एंड योगिक साइंस. बी.कॉम, एम.कॉम बी.एड. फार्मासिस्ट आयुर्वेद रत्न, सी.सी.एच. व्यवसाय: फार्मासिस्ट, भाषाई दक्षता एवं रुचियाँ भाषाएँ, हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी रुचियाँ, गीत, ग़ज़ल एवं सामयिक लेखन अध्ययन एवं ज्ञानार्जन साहित्यिक परिवेश में रहना वालिद (पिता) से प्रेरित होकर ग़ज़ल लेखन पूर्व पद एवं सामाजिक योगदान, पूर्व प्राचार्य, ज्ञानदीप हाई स्कूल, मगरधा पूर्व प्रधान पाठक, उर्दू माध्यमिक शाला, बलड़ी ग्रामीण विकास विस्तार अधिकारी, बलड़ी कम्युनिटी हेल्थ वर्कर, मगरधा साहित्यिक यात्रा लेखन का अनुभव: 30 वर्षों से निरंतर लेखन प्रकाशित रचनाएँ: 2000+ कविताएँ, ग़ज़लें, सामयिक लेख प्रकाशन, निरन्तर, द ग्राम टू डे, दी वूमंस एक्सप्रेस, एजुकेशनल समाचार पत्र (पटना), संस्कार धनी (जबलपुर),जबलपुर दर्पण, सुबह प्रकाश , दैनिक दोपहर,संस्कार न्यूज,नई रोशनी समाचार पत्र,परिवहन विशेष,समाचार पत्र, घटती घटना समाचार पत्र,कोल फील्ड मिरर (पश्चिम बंगाल), अनोख तीर (हरदा), दक्सिन समाचार पत्र, नगसर संवाद, नगर कथा साप्ताहिक (इटारसी) दैनिक भास्कर, नवदुनिया, चौथा संसार, दैनिक जागरण, मंथन (बुरहानपुर), कोरकू देशम (टिमरनी) में स्थायी कॉलम अन्य कई पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित प्रकाशित पुस्तकें एवं साझा संग्रह साझा संग्रह (प्रमुख), मधुमालती, कोविड, काव्य ज्योति, जहाँ न पहुँचे रवि, दोहा ज्योति, गुलसितां, 21वीं सदी के 11 कवि, काव्य दर्पण, जहाँ न पहुँचे कवि (रवीना प्रकाशन) उर्विल, स्वर्णाभ, अमल तास, गुलमोहर, मेरी क़लम से, मेरी अनुभूति, मेरी अभिव्यक्ति, बेटियां, कोहिनूर, कविता बोलती है, हिंदी हैं हम, क़लम का कमाल, शब्द मेरे, तिरंगा ऊंचा रहे हमारा (मधुशाला प्रकाशन) अल्फ़ाज़ शब्दों का पिटारा, तहरीरें कुछ सुलझी कुछ न अनसुलझी (जील इन फिक्स पब्लिकेशन) व्यक्तिगत ग़ज़ल संग्रह: तुम भुलाये क्यों नहीं जाते तेरी नाराज़गी और मेरी ग़ज़लें तेरा इंतज़ार आज भी है (नवीनतम) पाँच नए ग़ज़ल संग्रह प्रकाशनाधीन सम्मान एवं पुरस्कार साहित्यिक योगदान के लिए अनेक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त पाठकों का स्नेह, साहित्यिक मंचों से मान्यता मुश्ताक़ अहमद शाह जी का साहित्यिक और सामाजिक योगदान न केवल मध्य प्रदेश, बल्कि पूरे हिंदी-उर्दू साहित्य जगत के लिए गर्व का विषय है। आपकी लेखनी ने समाज को संवेदनशीलता, प्रेम और मानवीय मूल्यों से जोड़ा है। आपके द्वारा रचित ग़ज़लें और कविताएँ आज भी पाठकों के मन को छूती हैं और साहित्य को नई दिशा देती हैं।