माँ का हाथ
बृद्धाश्रम में महफिल जमी हुई थी । इधर उधर की बातें हो रही थी । उन सब में एक वसुधा ही अलग थी । सुहागिन होते हुए , क्यों कई सालों से बृद्धाश्रम में रह रही थी । दिखने में तो किसी भले घर की लगती है । नौकरी भी करती है ! कोई तो वज़ह होगी उसके यहाँ रहने की ! लेकिन पूछने की हिम्मत कभी किसी ने नहीं की ।
वसुधा सबका खुब ख्याल रखती थी । उसकी दूखती रग पर कभी भी किसी ने हाथ डालना उचित नहीं समझा । सबका ध्यान थोड़ी देर पहले आई एक दुखयारी माँ की ओर चला गया वह अपने नसीब का रोना रो रही थी । “हाय राम हे ईश्वर; पुत्र के जीते जी माँ अनाथों की तरह आज वृद्धाश्रम में शरण लेने आई , धरती फट क्योंं नहीं गई ; अंबर फट क्यों नहीं गया हे राम ।”
वसुधा उस महिला के पास जाकर उन्हें सांन्त्वना देते हुए कहने लगी , “मत रोइये माँ , खुद को संभालिये ।”
” जानती हैं , मेरे पिता समान श्वसुर जी आखिरी वक्त में माँ का हाथ मेरे हाथों में देकर इस दुनिया से विदा हुए थे । उन्होंने कहा था, बेटा बुजुर्गों का सम्मान जहां नहीं होता है, वहां शांति और क्लेश सदैव रहता है ।”
“हमारी सासू माँ दिमागी तौर पर बच्ची थीं, पिताजी के गुजरने के बाद हमारे पति माँ जी को मानसिक आरोग्य केन्द्र भेजना चाहते थे ।”
“मेरे इंकार करने पर गुस्से में उनके मुँह से निकल गया , “अगर इतनी ही फिक्र है तुम्हें माँ की तो तुम भी साथ चली जाओ, हर वक्त नौकरी की धौंस हमें मत दिखाओ ।”
उनकी बात दिल से चाहकर भी नहीं निकाल पाई ।”
“माँ जी को गुजरे कई वर्ष बीत गए । अब वापस जाने का दिल ही नहीं करता । यहाँ कई माँएं एवं पिता समान बुजुर्गों की सेवा करने का अवसर मिलता है । जीवन जीने का नज़रिया ही बदल गया, आज हम जवान हैं तो कल बुजुर्गों की श्रेणी में भी आयेंगे ।”
” यह वृद्धाश्रम एवं हमारे स्कूल के छोटे-छोटे बच्चे ही हमारा घर एवं परिवार है ।”
वह बुढ़ी महिला वसुधा की हथेली अपने हाथों लेकर फिर बिलख पड़ी ।
“‘अच्छा कि बिटिया वापस नहीं जाकर , नीम के नींबोली से नीम ही पैदा होता ना ।”
— आरती रॉय