तीन कुण्डलिया छंद
(1)
मसिजीवी हैं जो श्रमिक,उनको नम्र प्रणाम।
दूर करें अड़चन सभी,उनकी प्रभु श्रीराम।।
उनकी प्रभु श्रीराम,कीर्ति फैलायें जग में।
लेखन हो अविराम,भरे श्रम यूँ रग-रग में।।
कह सतीश कविराय,जीत के बनें क़रीबी।
उनको नम्र प्रणाम,श्रमिक जो हैं मसिजीवी।।
(2)
मौलिकता अनिवार्य है,रचनाओं में मीत।
करना हमको चाहिए,कुछ श्रम से भी प्रीत।।
कुछ श्रम से भी प्रीत,ज़रूरी है लेखन में।
संभव है यह बात,अगर हम ठानें मन में।।
कह सतीश कविराय,वही कवि केवल टिकता।
रचनाओं में यार,रहे जिसकी मौलिकता।।
(3)
करें श्रमिक की वंदना,दिल से हम-सब आज।
श्रमिकों के हित में लगे,अब साहित्य समाज।।
अब साहित्य समाज,दिखाये करतब अपना।
होवे निश्चित पूर्ण,सहज श्रमिकों का सपना।।
कह सतीश कविराय,न चाहत हमें अधिक की।
दिल से हम-सब आज,वंदना करें श्रमिक की।।
— सतीश तिवारी ‘सरस’