मूल्यों की शिक्षा (व्यंग्य)
मैं शिक्षक हूँ। एक ऐसे विषय का जिसे न बच्चों पढ़ने में विशेष रुचि है न माँ-बाप की पढ़वाने में। हिन्दी पढ़ाता हूँ। मेरा विषय सिर्फ इसलिए पढ़ा या पढ़वाया जाता है क्योंकि वह पाठ्यक्रम का एक अंग है। हिन्दी माध्यम से बच्चों को शिक्षित करने में शर्म आती है। बड़े-बड़े हिन्दी के विद्वान, हिन्दी और कॉलेज के प्रोफेसर तक शहर के पाँच तारांकित स्कूलों में भेजकर अंग्रेजी माध्यम से पढ़वाने में शान समझते हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ। हमें डर है कि यदि अंग्रेजी माध्यम से नहीं पढ़ेगा तो बच्चे का भविष्य अंधकार में विलीन हो जायेगा। और भाई दुनिया में लोक-लाज भी कोई चीज़ है कि नहीं?
बड़ी विसंगति है देश में अभिभावक तीन साल के बच्चे को घर में ‘ए-फॉर एपल’ से तो शिक्षा का शुभारंभ करने में नहीं घबराते लेकिन ‘अ-अनार’ का पढ़ाने में उन्हें पिछड़ापन लगता है। हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने में देशभक्त माता-पिता को डर लगा रहता है कि बच्चे का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा। ये बात दूसरी है कि दसवीं में नब्बे प्रतिशत अंक पानेवाले अधिकांश बच्चों को ना हिन्दी ठीक से आती है और ना ही अंग्रेजी। दुबे जी चौबे जी बनते-बनते सिर्फ छब्बे जी ही बने रह जाते हैं।
शिक्षाधिकारी और विद्वान-विदुषी अपेक्षा करते हैं कि बच्चों में अच्छे संस्कार के रूप में भाषा शिक्षक ‘जीवन मूल्य’ रोपित किए करें। जिस देश में लाखों रुपये का मूल्य विद्यालयों में देकर शिक्षा खरीदी जा रही हो वहाँ ‘जीवन मूल्य’ की बात करना मूर्खता की पराकाष्ठा है। विद्यालय नोट छापने की मशीन बन गये हैं। जीवन मूल्य ऐसा कि अफसरों – धनाढ्यों के घर की छत-दीवारें, शयनालय-शौचालय करोड़ों की गड्डियाँ उगल रहे हैं। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय? बी एड करते समय विद्यार्थी जीवन में पढ़ा था कि शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी को अच्छा नागरिक बनाना है। कोई नहीं बनाना चाहता ‘अच्छा नागरिक’। भला ‘अच्छा नागरिक’ बनाकर कौन माँ-बाप अपनी बुढ़ापे की लाठी तोड़कर, कुल्हाड़ी पर अपने पैर रखना चाहेगा? वे उसे विद्यार्थी नहीं, कुबेर बनाना चाहते हैं। राजनैतिक दलों को ऊँचे जीवनमूल्य वाला उम्मीदवार नहीं अपराध – जगत में दहलका मचाने वाला चाहिए। गाँधी जी सिर्फ देश की मुद्राओं को अलंकृत करने के काम आते हैं। यदि आज जीवित अवस्था में किसी पार्टी के पास जाते तो बापू को सुनने मिलता -“मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है?” सास-ससुर को रिश्वतखोर-शराबी-भ्रष्ट दामाद तो माता-पिता को दुराचारी किंतु अनीति से धन संग्रह करने वाला बेटा पसंद है। अब जीवन के लिए मूल्यों की नहीं रुपयों की ज़रुरत है। अफसोस कि शिक्षक तो नागरिक बनाना चाहता है पर समाज?
सेवा के आरंभ से अब तक बच्चों को अच्छा निबंध लिखने के गुर सिखाता हूँ। पर बच्चे समझते ही नहीं जीवन में निबंध का महत्व! जब न्यायालय ने निबंध लिखवाकर शराब पीकर कार चलनेवाले रईसजादे को मामूली सी सज दी तब समझ में आया कि निबंध का प्रश्न क्यों परीक्षा में अनिवार्य होता है। वरना अधिकांश विद्यार्थी तीस चालीस प्रतिशत अंक प्राप्त कर संतुष्ट हो जाते हैं। पर उस दिन अभिभावकों का एक दल मुझसे मिलने आया। उनकी माँग थी कि दसवीं कक्षा तक के बच्चों को “यातायात के नियम तोड़ने पर होनेवाली सजा से बचने के लिए” अच्छा सा निबंध लिखना अवश्य सिखाया जाए। मैंने कहा -उन्हें आप अठारह वर्ष की आयु के पहले वाहन ही न दें। ना रहेगा बाँस न बनेगी बाँसुरी! मेरी राय उन्हें बुरी लगी और मैं कामचोर!! आप पढ़ाना नहीं चाहते। मुफ्त की तनख्वाह लेते हो- एक नए कहा। दूसरा बोला- हमारे बच्चे दस-बारह किलोमीटर ट्यूशन पढ़ने जाते हैं। सायकिल चलाने से थक जायेंगे। तीसरे ने समझाया कि सायकिल आदि से जाने पर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा आहत होती है। चौथे महोदय तो अति संस्कारवान निकले। वे बोले- नया ज़माना है। नयी पीढ़ी है साहब! अब तो दोस्तों में पीना-पिलाना चलता रहता है। हम कहाँ -कहाँ उसके पीछे जायेंगे? कुल मिलाकर ज़ोर इस बात पर था कि मास्साब ऐसा निबंध लिखना सिखाइए कि नाबालिग उम्र में अपराध करने पर उसे सजा न दे सके कोई। वास्तव में आज ऊँचे जीवन मूल्यों वाली शिक्षा की नहीं बल्कि उस शिक्षा की आवश्यकता है जो ऊँचे मूल्य प्राप्त करवाए। तब मैं सोच में पड़ गया कि बच्चों को ‘जीवन-मूल्य’ सिखाऊँ या ‘जीवन का मूल्य’ सिखाऊँ या ‘मूल्यों भरा जीवन’? आप बताइए
— शरद सुनेरी