परिवर्तन से भय कैसा
परिवर्तन से भय कैसा, करनी से फल मिलता वैसा।
सत्य कर्म सब दूर हुए हैं, भगवन भी मजबूर हुए हैं।
जैसा बीजा वैसा काटे, मिले वही है जो सो बांटे।
परिवर्तन से भय कैसा, जैसे को मिलता है तैसा।
वन उपवन हमने उजाड़ा, मौत का है बना आखाड़ा।
नदी नालों ने मुख हैं मोड़ा, मानव कहीं का नहीं छोड़ा।
कुदरत से खिलवाड़ करें है, पर्यावरण उजाड़ करें है।
परिवर्तन से भय कैसा, काम किया मानव नें ऐसा।
प्रदूषण हम ने है बढ़ाया, संकट में जीवन है पाया।
बदल गई मौसम की माया, बिन मौसम कहर बरपाया।
पर्वत भी दरकने लगे हैं, जगह जगह सरकने लगे हैं।
परिवर्तन से भय कैसा, यह होता है प्रलय जैसा।
मेघ तांडव नाच है खेले, मानव घोर मुसीबत झेले।
मानव अब दानव बना है, अनैतिकता में हाथ सना है।
पग पग मिलते बलात्कारी,ज़िंदगी इन से अबला हारी।
परिवर्तन से भय कैसा, ईमान से बढ़ा अब पैसा।
— शिव सन्याल