कहाँ गईं कविताएँ ?
छलकाती रस से भर गगरी
करती दूर व्यथाएँ
कहाँ गईं कविताएँ ?
मधुरस भरकर,
कटि पर रखकर
मटक – मटक छलकाती
सुर, लय ताल में
युगलबंदी कर
सखि संग मिलकर गातीं
शब्दों के जादू से जो हर
लेतीं बुरी बलाएँ
कहाँ गईं कविताएँ ?
सनी खून से ऊँगुलियाँ हैं
आतुर दाग लगाने को
क्रूर शब्द भी मुखर हो उठे
अंगारे बरसाने को
शान्त करे सावन बूंदों सी
जो उर की ज्वालाएँ
कहाँ गईं कविताएँ ?
मन है विचलित, अन्तः कलुषित
रुदन भरे हैं राग सभी
धधक रही उर में ज्वालाएँ
सोच रही मति भ्रमित तभी
छन्दों की वह गठरी जिसमें
संचित सहज कलाएँ
कहाँ गईं कविताएँ ?
हो जाते थे खड़े रोंगटे
वीरों की सुन बातें
प्रिय करते थे भेट प्रिया को
भावों की सौगातें
रणभूमि में विजयपताका
फहराती रचनाएँ
कहाँ गईं कविताएँ ?
माँ की लोरी लिये कटोरी
भरी दूध रोटी से
चंदा मामा झांक रहे थे
पर्वत की चोटी से
नींदिया रानी से कर बातें
सपने सुखद सजाएँ
कहाँ गईं कविताएँ ?
— किरण सिंह