कविता

मुग्ध राधा

राधा से पूछ रही ललिता
री बोल सखी! क्या बात हुई
चितचोर कन्हैया से मिलकर
किस विधा में तू निष्णात हुई

ये नयन तुम्हारे कजरारे
किसलिए कुसुम की थाल हुए
मुख धवल चंद्र की मूरत से
किस भांति लहकते लाल हुए

निज तन सुध ना बुध मन की
हैं केश घुमड़ते बादल से
हैं कंपित दोलित रोम रोम
लहराते हरित दुर्वा दल से

अधर युगल नलिनी कलिका
दो, मुखरित मौन से मद भरते
हैं स्वेद सुवासित मलयानिल
परिवेश सकल सुरभित करते

उस नटखट मूरली वाले ने
री बोल सखी क्या जोग किया
जग मोहिनी राधिका रानी को
बस एक मिलन में मोह लिया

ललिता से बोल रही राधा
मत पूछ सखी री मन की दशा
वह रूप मदन मनहर मोहन
नयनों में उतर गया सहसा

मन हार गई उस छलिया पर
अब उसकी सखी सुहासिनी हूं
जब गई मिलन को थी राधा
अब केवल कृष्ण उपासिनी हूं

— समर नाथ मिश्र

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