कविता

मुलाकात के बाद

छुड़ा के हाथ चल पड़े
तो उंगलियां उलझ गईं
जुबां ने जो कहा नहीं
वो‌ धड़कने समझ गईं

तुम्हारी जाने की ये रट
तुम्हें भी नागवार है
कदम भी उठ रहे नहीं
नज़र भी बेकरार है

गुजर गए घड़ी भर में
ये मिलन के पल ‘हाय’
मन अभी भरा नहीं तो
किस तरह कहुं “बाय”

कहती हो मिलूंगी कल
कहो कब ये होगा कल
बीच में जो हैं सदियां
सँभले कैसे मन विकल

बिन तेरे इक लम्हा भी
चैन नहीं आना है
और कह रही हो सखी
रात भर बिताना है

होते हम अगर पाखी
सब से दूर हो जाते
जग के रीत बंधन फिर
बाँध ना हमें पाते

उड़ते नील नभ में फिर
स्वप्न कई सजाते हम
कहीं किसी कोटर में
नीड़ मिल बनाते हम

मधुर मदिर सपने सखी
आँखों को सजाने दो
रुक जाओ पास बैठो
जाने की बात जाने दो

मन की मन ने सुन ली
औ उलझनें सुलझ गईं
जुबां ने जो कहा नही
वो धड़कनें समझ गईं

— समर नाथ मिश्र

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