सामाजिक

अमूल परिवर्तन

बाल शिक्षण का मनोवैज्ञानिक उदेश्य यह होना चाहिए कि बच्चों को संसार की कर्मस्थली में आने के लिए तैयार किया जाए। 

मनोविज्ञान के ज्ञाता और शिक्षा शास्त्र के विशेषज्ञो का कथन है, कि सात साल से पहले की उम्र ही बच्चो के जीवन का सच्चा और सही नियमन और निर्माण करने वाली उम्र होती है ।यदि इस उम्र में पूरी सर्तकता से काम लेकर बालको के विकास पर पर्याप्त चेष्टा न की गई तो बाद में उनपर किया गया सारा र्खच और परिश्रम बेकार हो जाता है।यह एक ऐसी सच्चाई है ,जिस पर दो राय हो ही नहीं सकती ।जन्म से सात साल तक की उम्र में बच्चो के सर्वोत्तम विकास के लिए हम व्यक्तिगत और समाजिक रुप से बहुत ही कम चिन्ता करते है, बच्चों के जीवन का अत्यंत कीमती समय प्रमाद के कारण व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है।

बाल शिक्षण का मनोवैज्ञानिक उदेश्य यह होना चाहिए कि बच्चों को संसार की कर्मस्थली में आने के लिए तैयार किया जाए। शिक्षण का उदेश्य मनुष्य को मनुष्य बनाना,उसमे आत्म निर्भरता की भावना भरना,चरित्र निर्माण करना,अंतत:मोक्ष की प्राप्ति करना।प्रत्येक देश के भावी नागरिक विद्यार्थी ही होते हैं।देश की आशा देश के नवयुवकों पर होती हैं। नवयुवको की जैसी शिक्षा व्यवस्था होगी,देश का भविष्य भी वैसा ही होगा।प्रत्येक देश का उत्थान उसकी शिक्षा और उसके विधाथियों पर आधारित होता है। देश की उन्नति-अवनति उसकी शिक्षा प्रणाली पर ही निर्भर करती है।यदि देश को युगों के लिए दास बनाना हो तो उस देश के प्राचीन साहित्य और इतिहास को नष्ट कर दीजिए तथा उसकी शिक्षा प्रणाली को अपने अनुकूल बना दिजिए । अंग्रेजों ने अपने शासन को स्थायी बनाने के लिए वही किया।सन 1828 मे लार्ड मैकाले ने शिक्षा के उद्देश्य की घोषणा करते हुए कहा था `मेरा उदेश्य इस शिक्षा से केवल यही है कि भारत मे अधिक से अधिक कर्लक पैदा हो और भारत बहुत दिनों तक हमारा गुलाम बना रहे। लार्ड मैकाले के सपनो के आधार पर निर्मित ब्रिटिश शासन कालीन शिक्षा ने केवल क्लर्क और बाबू ही उत्पन्न किए और उनके मस्तिष्क को इतना संकुचित बना दिए वे शिक्षा का उदेश्य केवल नौकरी ही समझने लगे।आज का विधार्थी भी शिक्षा को केवल नौकरी ही समझते हैं ।ये विचार हमारे यहां आये अंग्रेजों की देन हैं, और आगे चलकर शिक्षा के नाम पर उनका भविष्य नौकरी ही मात्र नौकरी ही बन कर रह गया ।

आज हमारे यहां शिक्षा की जो स्थिति हैं,जिसे देखकर आज हरेक छात्र वर्ग इस शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन चाहता हैं।हमारे यहां के प्राथमिक विद्यालय की जो स्थिति हैं उसे शब्दों मे व्यक्त नही किया जा सकता हैं अभी प्रत्येक वर्ष हजारो की सख्या में शिक्षको की बहाली की जाती हैं उन्हें अच्छी खासी मोटी रकम मिलते हैंएक विद्यालय में कम से कम दस बारह शिक्षक अवश्य मिलेगे ,क्या शिक्षक मात्र से शिक्षा पूर्ण हो जाती हैं,न कि वहां छात्र, छात्रा की अच्छी सख्या भी जरुरी होती हैं। हमारी सरकार गरीब बच्चों के लिए छात्रवृति तथा भोजन, अनाज आदि भी उपलब्ध कराती हैं,क्या ये सारी व्यवस्थायें सही से सभी बच्चो तक उपलब्ध हो पाती हैं?क्या उन शिक्षक के प्रति गरीब छात्र को घृणा नहीं होगी?

 कोई भी मां -बाप अपने बच्चों को निजी विद्यालय में अच्छी खासी मोटी रकम देकर पढाना क्यों चाहते है,क्या उन मां-बाप को पैसें काटते है?ऐसा नही है,इसका एकमात्र कारण सरकारी शिक्षण संस्थान की उदासीनता। सरकार शिक्षण संस्थान के नाम पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए खर्च करती है,हालांकि पहले के अपेक्षा कुछेक सरकारी विद्यालय मे सुधार देखने को मिल रहा है,लेकिन निम्न स्तर तक सुधार की आवश्यकता है।हमारे यहां पाश्चात्य संस्कृति इस कदर फैली हुई हैं कि इसका स्पष्ट उदाहरण गली-गली मे खुलें निजी कान्वेंट विद्यालय,आज के जमाने मे हरेक मां-बाप अपने बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढकर गर्व महसूस करते है।कान्वेंट संस्कृति में बिना सोचे समझें सम्मिलित कर हम अपने बच्चों के बालपन को कुंठित कर रहे है।क्या अंग्रेजी बोलना और अपनी मातृभाषा हिन्दी और संस्कृत जैसे विषयो को निकृष्ट रखना कोई नई शिक्षा पद्धति हैं?हमारी सरकार कुछेक प्रयत्न भी कर रही हैं लेकिन क्या सफल हो पाए? केन्द्रीय विकास की “वयस्क शिक्षा कमेटीं” ने एक विशाल योजना बनाई, एक अन्य समिति ने भारत में सेकेंडरी शिक्षा की योजना का निर्माण किए, औद्योगिक शिक्षा को भी हमारी सरकार ने प्रश्रय दिया,नवीन-नवीन औद्योगिक प्रशिक्षण तथा कौशल विकास योजना जगह-जगह खोलें गए लेकिन अभी क्या इन सब का लाभ निम्न स्तर तक मिल रहा ह?,जबाव खुद सोचिए, कारण हमारी बढती जनसंख्या और शिक्षण संस्थान में फैले भ्रष्टाचार और आराजकता। हमारे यहां के पारम्परिक शिक्षा पद्धति में गुरु,माता-पिता तथा बड़ो के प्रति सम्मान, स्त्रीयो के प्रति सम्मान, शिक्षा का अभिन्न अंग होना चाहिए। पाठ्यक्रम के अंतर्गत कार्यक्रम में नियमित रुप से समय-समय पर धार्मिक अनुष्ठान भी होना चाहिए ताकि उन विद्यालयो में नैतिक और चारित्रिक शक्ति के सुदृढ संस्कार जाग्रत हों।हमारे यहा ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता हैं ,जो देश के लिए अच्छे नागरिक, कुशल कार्यकर्ता, सच्चरित्र एव भावी सेनानी उत्पन्न कर सके।जो प्रत्येक व्यक्ति की समाजिक, संस्कृतिक, राजनीतिक शक्तियो के विकास में पूर्ण सहयोग दें।

— सुजाता मिश्रा

सुजाता मिश्रा

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