कविता

भारत वंदना

हे दयासिंधु करुणा निधान,
दे शक्ति कि मैं पतवार बनूं।
बनकर अच्छा इंसान ईश,
जागृत मानव का सार बनूं।।

करुणा शील मेरा उर हो,
जन-जन का मैं सेवक होऊं।
राहों में यदि आए रोड़े,
सहने को मैं तत्पर होऊं।।

शांति प्रियता हो तन मन में,
वाणी में मधुरिम प्यार रहे।
जब कर्म क्षेत्र में उतरूं मैं,
नव प्रेम की अमृत धार बहे।।

बिचरूं धरती पर सतत डगर,
कुछ करने की क्षमता आये।
जैसे अशोक ने युद्ध त्याग,
नीतियां शांति की बनवाये।।

मुख पे हो मुस्कान हमेशा,
उर करूणा सागर बन जाये।
सबका हो कल्याण धरा पर,
हे!प्रभु! वह सत्कार्य करायें।।

अपने हिन्द देश की जनता,
खुद का जीवन मूल्य संवारे।
त्याग तपस्या धर्म-कर्म से,
जन-जन का प्रभु भाग्य निखारे।।

ऐसा जागृत नागर बनकर,
देश प्रगति पथ के पथ पर लायें।
चलते-चलते प्राण तजें यदि,
उदाहरण बनाकर दिखलायें।।

यदि हम हैं नागरिक देश के,
कोई सेवा यदि कर जाये।
उन उत्तम सेवा कार्यों से,
राष्ट्र धर्म परचम लहराये।।

यदि सैनिक का कार्य कर रहे,
तो है जिम्मेदारी अपनी।
वह करनी है सुधार सुरक्षा,
इसमें नही लाचारी अपनी।।

यदि हम हों डॉक्टर स्वदेश के,
मानव के दुख हम दूर करें।
माता जैसा बन गया सिंधु,
व्याधियों को चकनाचूर करें।।

यदि शिक्षक हो हम भारत के,
चरित्रता का निर्माण करें।
कर सृजन उन्नत समाज का,
जन में सच्चा संस्कार भरें।।

वैज्ञानिक इस देश के हो यदि,
नव तकनीक का सृजन करें।
वैज्ञानिक नव संधानों से,
हम देश प्रगति अनुगमन करें।।

हो यदि राजनीति के वाहक,
असमानता की पाटें खाई।
पूर्ण राष्ट्र की प्रगति पटल पर,
समझें सब सबके हैं भाई।।

त्याग पराजित मनस्पटल को,
सुधार सुलक्ष्य संजाए सब।
लोक भावना को अपनाकर,
बीज शांति का बोयें सब।।

बूढ़ा वृक्ष भले हो जाए,
उसका सृजन बिम्ब हो अविरल।
उसकी अनुभूतियों की पाएं,
अग्रिम पीढ़ी नव-नव संबल।।

नदियां भिन्न मार्ग से निकले,
मिलकर इक धारा बन जायें।
भिन्न जातियां संप्रदाय भी,
मिलकर जन-मन उर सरसायें।।

नदियां बहती रहे निरंतर,
यदि रोड़े पथ पर आ जायें।
रुकने का कुछ नाम न ले वह,
अपने लक्ष्यों को पा जायें।।

जैसे चिड़िया तिनके-तिनके,
संजो सुधर निज नीड बनाये।
इन जड़ चेतन जीवों जैसे,
कार्य मनुज क्यों न कर पाये।।

— विजय प्रकाश