कविता

अंटी मार रहे

वो दुकानदार बनके,मार रहे हैं अंटी
कभी हक-अधिकार को
कभी रोजी-रोजगार को।
सोंचता हूँ दुकानदार बदलेगा
पर नही बदलता है
लुभावने वचनों में उलझाकर
हमको ही मसलता है।
अनेक मौसम बदल गये
पर अब तक हम नही बदले
न हमारी दरिद्रता बदली है
वो बदल-बदल करके भेष
केवल हम जैसों को छली है।
वो उच्च पदवी में विराज के
तरह-तरह के नियम ला देते हैं
कैसे हमे उल्लू बनाये?
विज्ञापनों से छा देते हैं।
हमने कब समीक्षा की है?
उस दुकानदार के काम की
बरसों से हम भुगत रहे
निसि-वासर दिए सलाम की।
वो बंदर बाट कर रहे
निम्न-मध्यम वर्ग के हिस्से को
तन मन धन से प्रताड़ित है
किसे सुनायें निज किस्से को??

— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’

चन्द्रकांत खुंटे 'क्रांति'

जांजगीर-चाम्पा (छत्तीसगढ़)